बेवफ़ा तेरी याद, तेरी तरह बेवफ़ा क्यों नहीं
जैसे तूने किया, वैसे ये करती दग़ा क्यों नहीं ?
दर्द को हमदम बनाकर जीना क्यों चाहा मैंने
क्या बेबसी थी, मिली ज़ख़्मों की दवा क्यों नहीं ?
इंसाफ़ की देवी के हाथ में तराज़ू, आँख पर पट्टी
ऐसे में गुनहगारों को मिलती सज़ा क्यों नहीं ?
आदमी से नाराज़ है या पत्थर हो गया है ख़ुदा
ऐसी कौन-सी वजह है, असर करती दुआ क्यों नहीं ?
ज़ुल्मों-सितम को मिटाना ही है जब काम उसका, फिर
दहशत के इस दौर में ज़मीं पर उतरा ख़ुदा क्यों नहीं ?
वो क्यों हुए बेवफ़ा, ये पूछने का हक़ नहीं तुझे
तू ख़ुद से पूछ ‘विर्क’ तूने छोड़ी वफ़ा क्यों नहीं ?
दिलबागसिंह विर्क
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4 टिप्पणियां:
वाह
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (14-12-2018) को "सुख का सूरज नहीं गगन में" (चर्चा अंक-3185) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
@आदमी से नाराज़ है या पत्थर हो गया है ख़ुदा.....
बहुत खूब !
ज़ुल्मों-सितम को मिटाना ही है जब काम उसका, फिर
दहशत के इस दौर में ज़मीं पर उतरा ख़ुदा क्यों नहीं ?
...वाह...बहुत सुन्दर प्रस्तुति..
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