हमने दिल दिया था जिनको एक नज़र में
वो हमें अपना बना न पाए, पूरी उम्र में।
न जज़्बों की अहमियत, न दिलों की क़द्र
आ गया हूँ मैं, पत्थरों के किस शहर में।
दीवारें ही दीवारें खींच दी यहाँ-वहाँ
पूरी बस्ती ही बना डाली एक घर में।
इनकी नादानियों पर हँसी आती है
ज़िंदगी तलाशें, नफ़रतों के ज़हर में।
देखो, रात का भी इंतज़ार नहीं इनको
बिक रहे हैं लोग सरेआम दोपहर में।
मेरी ज़िंदगी बेतरतीब थी ‘विर्क’ इसलिए
मैं बाँध न पाया ग़ज़ल को किसी बहर में।
दिलबागसिंह विर्क
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6 टिप्पणियां:
दीवारें ही दीवारें खींच दी यहाँ-वहाँ
पूरी बस्ती ही बना डाली एक घर में।
इनकी नादानियों पर हँसी आती है
ज़िंदगी तलाशें, नफ़रतों के ज़हर में।
सच्चाई लिए शानदार अशआर
उम्दा सृजन के लिए बधाई
लाजवाब ।
वाह ! बहुत खूब, उम्दा अश्यार
आपकी लिखी रचना "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" आज गुरुवार 23 जनवरी 2020 को साझा की गई है...... "सांध्य दैनिक मुखरित मौन में" पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत सुन्दर
बहुत सुंदर
वाह
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