जैसे सूरज उगने के बाद दिन ढले है
ऐसे क़िस्मत मेरी रोज़ रंग बदले है।
आख़िर बुझना ही होगा देर-सवेर इसे
दौरे-तूफ़ां में कब तलक चिराग़ जले है।
दिन-ब-दिन जवां हुई, इसका इलाज क्या
मेरे इस दिल में तेरी जो याद पले है।
न गवारा था मुझको अश्क बहाना लेकिन
इस तक़दीर पर कब किसी का ज़ोर चले है।
क़ियामत से भी बढ़कर होती है वो कसक
जब भी मेरा ये दिल दीवाना मचले है।
मंजिल से बढ़कर हुए है अहमियत सफ़र की
सुन ऐ ‘विर्क’, हर किसी को साहिल न मिले है।
दिलबागसिंह विर्क
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8 टिप्पणियां:
लाजवाब
बहुत शानदार प्रस्तुति।
वाह!!!
बहुत ही लाजवाब...
वाह वाह
क्या कहने।
लाजवाब।
नई पोस्ट पर आपका स्वागत है- लोकतंत्र
सादर नमस्कार,
आपकी प्रविष्टि् की चर्चा शुक्रवार ( 21-08-2020) को "आज फिर बारिश डराने आ गयी" (चर्चा अंक-3800) पर भी होगी। आप भी सादर आमंत्रित है.
…
"मीना भारद्वाज"
कभी किसी को मुकम्मल जहाँ नहीं मिलता
वाह !लाजवाब सर।
बहुत खूब,हर एक शेर लाज़बाब ,सादर नमन आपको
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