शनिवार, दिसंबर 25, 2010

अग़ज़ल - 4

बहुत हो गई, अब छोडो यारो ये तकरार बे-बात की 
जिंदगी जन्नत बने, इसके लिए निभानी होगी दोस्ती । 

ये वो शै है, जो हर पल आमादा है लुप्त होने को 
जब मिले, जहाँ मिले, जी भरकर समेट लेना ख़ुशी । 

प्यार के सब्ज़ खेत भला लहलहाएंगे तो कैसे, जब तक 
वफा की घटा, दिलों की जरखेज ज़मीं पर नहीं बरसती । 

वहशियत नहीं मासूमियत हो, नफ़रत नहीं मुहब्बत हो 
ऐसे ख्वाबों को पूरा करने में तुम लगा दो जिंदगी । 

माना दौर है तूफानों का, यहाँ नफ़रतों की आग है 
फिर भी हिम्मत हारना, है तुम्हारी सबसे बड़ी बुजदिली । 

न तो नफ़रत की बात कर 'विर्क', न उल्फत से गिला कर 
किस्मत तेरी रंग लाएगी, तू खुद को बदल तो सही । 

दिलबाग विर्क 
 * * * * *

1 टिप्पणी:

Shanno Aggarwal ने कहा…

बहुत सुंदर गज़ल...बधाई आपको.

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