नहीं स्वीकार्य
हिंदी के मूल्य पर
मातृभाषा भी .
रास्ते हैं धर्म
मंजिल है ईश्वर
विवाद क्यों है .
हर काम में
हम लाभ ढूंढते
कितने स्वार्थी !
मैं हूँ विद्वान
मैं हूँ समझदार
भ्रम में सभी !
ताली बजती
सदैव दो हाथों से
एक से नहीं .
बुरे हैं नेता
हैरानी किसलिए
आदमी वे भी .
चुप रहना
मजबूरी क्यों बनी
आम जन की ?
इच्छा सबकी
बदल दें समाज
अपने सिवा .
नकल रोको
नारे लगाते सब
चाहते नहीं .
बुत्त जलता
दशहरे के दिन
रावण नहीं .
* * * * *
7 टिप्पणियां:
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@-बुत्त जलता
दशहरे के दिन
रावण नहीं ....
दिलबाग विर्क जी ,
इतनी बेहतरीन प्रस्तुति कि प्रशंसा के लिए शब्द कम हैं। काश बुत कि जगह रावण जलता तो अहंकार का नाश होता और शायद दुनिया कुछ बेहतर होती ।
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मैं हूँ विद्वान
मैं हूँ समझदार
भ्रम में सभी !
.
बहुत खूब
अच्छी लगी रचना ।
लौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप
दूबे जी
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के प्रथम भाग के लिए धन्यबाद ,
टिप्पणी का दूसरा हिस्सा मुझसे सम्बन्धित नहीं है अत: मुझे दूर रखें
आपको एक सलाह है हाइकु के रूप में
संवाद करो
असहमति पर
विवाद नहीं
जवाब देने के लिए आभार , आगे से आपके ब्लॉग पर आने से पहले ध्यान रखूँगा .
शुक्रिया
इच्छा सबकी
बदल दें समाज
अपने सिवा .
बहुत खूब!क्या खूब लिखा है
हमारी शुभकामनाये आपके साथ है,
बुरे हैं नेता
हैरानी किसलिए
आदमी वे भी .
bilkul sach, hamne unhe aadmi se bada ka darja dena chaha, isliye bura lagta hai..:!
saare ek se badh kar ek....
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