रविवार, फ़रवरी 20, 2011

हाइकु - 2

     नहीं स्वीकार्य 
   हिंदी के मूल्य पर 
   मातृभाषा भी .
  
              रास्ते हैं धर्म
              मंजिल है ईश्वर 
              विवाद क्यों है .
   हर काम में
   हम लाभ ढूंढते 
   कितने स्वार्थी  !
                   मैं हूँ विद्वान
                   मैं हूँ समझदार 
                   भ्रम में सभी  !
    ताली बजती
    सदैव दो हाथों से
    एक से नहीं   .
                बुरे हैं नेता 
                हैरानी किसलिए 
                आदमी वे भी .
       चुप रहना 
       मजबूरी क्यों बनी 
       आम जन की  ?
                  इच्छा सबकी 
                  बदल दें समाज 
                  अपने सिवा .
       नकल रोको 
       नारे लगाते सब 
       चाहते नहीं .
                    बुत्त जलता 
                    दशहरे के दिन 
                    रावण नहीं .
  
           * * * *      

7 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

.

@-बुत्त जलता
दशहरे के दिन
रावण नहीं ....

दिलबाग विर्क जी ,

इतनी बेहतरीन प्रस्तुति कि प्रशंसा के लिए शब्द कम हैं। काश बुत कि जगह रावण जलता तो अहंकार का नाश होता और शायद दुनिया कुछ बेहतर होती ।

.

एस एम् मासूम ने कहा…

मैं हूँ विद्वान
मैं हूँ समझदार
भ्रम में सभी !
.
बहुत खूब

Mithilesh dubey ने कहा…

अच्छी लगी रचना ।


लौहांगना ब्लॉगर का राग-विलाप

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

दूबे जी
मेरे ब्लॉग पर आने के लिए और टिप्पणी के प्रथम भाग के लिए धन्यबाद ,
टिप्पणी का दूसरा हिस्सा मुझसे सम्बन्धित नहीं है अत: मुझे दूर रखें
आपको एक सलाह है हाइकु के रूप में
संवाद करो
असहमति पर
विवाद नहीं

Mithilesh dubey ने कहा…

जवाब देने के लिए आभार , आगे से आपके ब्लॉग पर आने से पहले ध्यान रखूँगा .
शुक्रिया

मदन शर्मा ने कहा…

इच्छा सबकी
बदल दें समाज
अपने सिवा .
बहुत खूब!क्या खूब लिखा है
हमारी शुभकामनाये आपके साथ है,

मुकेश कुमार सिन्हा ने कहा…

बुरे हैं नेता
हैरानी किसलिए
आदमी वे भी .


bilkul sach, hamne unhe aadmi se bada ka darja dena chaha, isliye bura lagta hai..:!

saare ek se badh kar ek....

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