सोमवार, जनवरी 28, 2013

अग़ज़ल - 49

और क्या मिलना है , यादों को संजोने से 
बहल जाता है दिल, घड़ी-दो-घड़ी रोने से ।

अब हुआ अहसास, ठोकर लग ही जाती है 
जरूरत से कुछ ज्यादा वफादार होने से ।

सागर की खामोशियों पर एतबार न करना
सकूं मिलता है इसे कश्तियाँ डूबोने से । 

फरेबी दुनिया छोडती ही नहीं फरेब को 
दिल साफ़ हुआ नहीं करता जिस्म धोने से ।

जरूरी तो है इंसानियत को निभाना मगर  
फुर्सत कहाँ है रिवाजों का बोझ ढोने से ।

काश ! छोटी-सी बात समझ लेती दुनिया 
कुछ भी न होना अच्छा है बुरा होने से ।

कशिश है, कसक है मगर विर्क रुसवाई नहीं 
निराला ही मजा है सफर में मंजिल खोने से ।

दिलबाग विर्क 
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5 टिप्‍पणियां:

nayee dunia ने कहा…

सागर की खामोशियों पर एतबार न करना
सकूं मिलता है इसे कश्तियाँ डूबोने से ।

bahut sundar bhav liye huye

ANULATA RAJ NAIR ने कहा…

बहुत खूब....

बेहतरीन शेर...

अनु

डॉ. मोनिका शर्मा ने कहा…

जरूरी तो है इंसानियत को निभाना मगर
फुर्सत कहाँ है रिवाजों का बोझ ढोने से ।

Khoob Kahi....

अरुन अनन्त ने कहा…

वाह दिलबाग सर वाह सभी के सभी अशआर माशाल्लाह कमाल के कहें हैं, बेहद लाजवाब ग़ज़ल हेतु दिली दाद के साथ-साथ ढेरों दाद कुबूलें. सादर

धीरेन्द्र सिंह भदौरिया ने कहा…

वाह वाह !!! बेहद लाजवाब ग़ज़ल ,,,,,बधाई दिलबागजी,,,,,

WELCOME TO MY recent post: कैसा,यह गणतंत्र हमारा,

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