मंगलवार, फ़रवरी 05, 2013

अग़ज़ल - 50

जीना नहीं आया यारो, मुझको जीना नहीं आया 
जिन्दगी क्या थी ? दो घूँट जहर, पीना नहीं आया ।

जमीं के गुलशन और दिल के चमन में फर्क है यही 
टूटा जो दिल तो फिर बहार का महीना नहीं आया ।
खून जलाना पड़ता है यहाँ दो वक्त की रोटी के लिए 
वो क्या जाने असलियत जिसे पसीना नहीं आया ।

करीने-कयास के सहारे कब तक मिलती कामयाबी 
हमें हुनर से कामयाब होने का करीना नहीं आया ।

उनकी फितरत में थी बेवफाई , वो कर गए लेकिन 
ये मेरी खता है, चाक जिगर को सीना नहीं आया ।
खतरे ही खतरे हैं ' विर्क ' इस मुहब्बत के दरिया में 
इस सफर से सलामत दिल का सफीना नहीं आया ।

दिलबाग विर्क 
*********

करीने-कियास  --- अटकल से ठीक होना 
करीना ---- ढंग 
चाक --- विदीर्ण , फटा हुआ 
सफीना  ---  नौका, नाव 
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4 टिप्‍पणियां:

Asha Lata Saxena ने कहा…

बढ़िया प्रस्तुति |आशा

Anupama Tripathi ने कहा…

गहन ...बढ़िया प्रस्तुति ...

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

खतरे ही खतरे हैं ' विर्क ' इस मुहब्बत के दरिया में
इस सफर से सलामत दिल का सफीना नहीं आया ।

बहुत खूबसूरत ग़ज़ल ....

kavita vikas ने कहा…

bahut achhi panktiyaan hain

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