बुधवार, अगस्त 28, 2013

पागल दिल मेरा

इसको तेरे बिन कुछ भी दिखता कब है
पागल दिल मेरा, मेरी सुनता कब है ।

कोई शख्स हसीं इसको बहका न सका
ये दिल अब और किसी को चुनता कब है ।

टूटेगा आखिर, इंसां का हश्र यही
कोई मिट्टी का पुतला बचता कब है ।

ये आशिक तेरे दर पर मरना चाहे
काबा माने बैठा है, उठता कब है ।

बस तुझको पाना ही है मकसद मेरा
बिन इसके दिल और दुआ करता कब है ।

'विर्क' भले अपना मिलना लगता मुश्किल
पर उम्मीदों का सूरज ढलता कब है ।

दिलबाग विर्क

7 टिप्‍पणियां:

Madan Mohan Saxena ने कहा…

बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें

Darshan jangra ने कहा…


बहुत खूब ,


हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः8

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

दिल्वाग जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुति !
latest postएक बार फिर आ जाओ कृष्ण।

Rajendra Swarnkar : राजेन्द्र स्वर्णकार ने कहा…



☆★☆★☆

इसको तेरे बिन कुछ भी दिखता कब है
पागल दिल मेरा, मेरी सुनता कब है

अच्छा है…!
:)
बंधुवर दिलबाग विर्क जी
आपके ब्लॉग हैडर पर लिखे शे'र -
माना बह्र नहीं मेरे पास मगर
मुझे खुद के इजहार का हक तो दे

ने दिल छू लिया...


हार्दिक मंगलकामनाएं-शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

वाह !वाह!!

डा श्याम गुप्त ने कहा…

क्या बात है ...उम्मीदों का सूरज ढलता कब है ...सुन्दर ...

विभूति" ने कहा…

भावो का सुन्दर समायोजन......

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