इसको तेरे बिन कुछ भी दिखता कब है
पागल दिल मेरा, मेरी सुनता कब है ।
कोई शख्स हसीं इसको बहका न सका
ये दिल अब और किसी को चुनता कब है ।
टूटेगा आखिर, इंसां का हश्र यही
कोई मिट्टी का पुतला बचता कब है ।
ये आशिक तेरे दर पर मरना चाहे
काबा माने बैठा है, उठता कब है ।
बस तुझको पाना ही है मकसद मेरा
बिन इसके दिल और दुआ करता कब है ।
'विर्क' भले अपना मिलना लगता मुश्किल
पर उम्मीदों का सूरज ढलता कब है ।
दिलबाग विर्क
7 टिप्पणियां:
बहुत खूब , शब्दों की जीवंत भावनाएं... सुन्दर चित्रांकन
कभी यहाँ भी पधारें
बहुत खूब ,
हिंदी ब्लॉग समूह चर्चा-अंकः8
दिल्वाग जी बहुत सुन्दर ग़ज़ल प्रस्तुति !
latest postएक बार फिर आ जाओ कृष्ण।
☆★☆★☆
इसको तेरे बिन कुछ भी दिखता कब है
पागल दिल मेरा, मेरी सुनता कब है
अच्छा है…!
:)
बंधुवर दिलबाग विर्क जी
आपके ब्लॉग हैडर पर लिखे शे'र -
माना बह्र नहीं मेरे पास मगर
मुझे खुद के इजहार का हक तो दे
ने दिल छू लिया...
हार्दिक मंगलकामनाएं-शुभकामनाएं !
-राजेन्द्र स्वर्णकार
वाह !वाह!!
क्या बात है ...उम्मीदों का सूरज ढलता कब है ...सुन्दर ...
भावो का सुन्दर समायोजन......
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