बड़ी गुर्बज़ी के जमाने हुए
शराफत, अदब तो फ़साने हुए । वफा के लिए कौन मिटता यहाँ
वफा के खिलौने पुराने हुए ।
न ढूँढा गया तोड़ इस चाल का
नए रोज उनके बहाने हुए ।
जहाँ दिन ढला या कदम थक गए
वहीं पर हमारे ठिकाने हुए ।
नफा देखते लोग हर बात में
सभी आज बेहद सियाने हुए ।
यहाँ आम जब से हुई नफरतें
न फिर ' विर्क ' मौसम सुहाने हुए ।
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गुर्बज़ी - मक्कारी
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2 टिप्पणियां:
वाह... उम्दा प्रस्तुति...बहुत बहुत बधाई...
नयी पोस्ट@ग़ज़ल-जा रहा है जिधर बेखबर आदमी
बहुत सुन्दर प्रस्तुति !
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