शनिवार, सितंबर 27, 2014

थोड़े खोटे, थोड़े खरे हो जाएँ

कभी सोचते हैं हम, ओढ़कर नक़ाब मसखरे हो जाएँ 
भूल ज़िंदगी के ग़म तमाम, ज़िंदगी से परे हो जाएँ । 
अपनी तमन्नाओं के वजूद का मिटाकर नामो-निशां 
किसी के हाथों की मेंहदी, बाँहों के गजरे हो जाएँ । 

 गर सोच के मंजर हक़ीक़त में बदलें तो ठीक, नहीं तो 
छोड़कर सारी समझदारियाँ चलो हम सिरफिरे हो जाएँ । 

पीते हैं दिन-रात मय साकी, बस इतना मक़सद है 
हम बदनाम तो पहले ही बहुत हैं, अब बुरे हो जाएँ । 

तुम मुहब्बत को छोड़ो, नफरत को आजमाकर देखो 
मुहब्बत में उजड़े हैं, शायद नफरत से हरे हो जाएँ । 

खरों के साथ-साथ खोटे भी चलते हैं इस जमाने में 
जीने के लिए ' विर्क ' थोड़े खोटे, थोड़े खरे हो जाएँ । 
दिलबाग विर्क 
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काव्य संकलन - काव्य गौरव 
संपादक - मोहन कुमार 
प्रकाशक - आकृति प्रकाशन, पीलीभीत ( उ. प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2007
*****

रविवार, सितंबर 21, 2014

कोई यहाँ दिल लूटता कब था

ख़ुदा तू ही, सिवा तेरे किसी को पूजता कब था 
तेरा दर छोड़, मेरा दूसरा कोई पता कब था । 

करें शिकवा किसी से किसलिए अपनी खता का हम 
लुटे हम शौक से, कोई यहाँ दिल लूटता कब था । 

उसे तो फ़िक्र थी खुद की, सदा सोचा किया खुद को 
मेरी मजबूरियों को वो समझना चाहता कब था । 

सदा से बस यही फितरत रही है राजनेता की 
बना सेवक, मगर सत्ता मिली तो पूछता कब था । 

मुझे बस प्यार के दो बोल मिल जाएँ, यही चाहा 
ख़ुदा से ' विर्क ' मैं इसके सिवा कुछ माँगता कब था । 

दिलबाग विर्क 
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गुरुवार, सितंबर 18, 2014

दीवानों की हस्ती क्या

इश्क़ बताए, होती है बुत्तपरस्ती क्या 
दीवानापन क्या, दीवानों की हस्ती क्या । 

गीत मुहब्बत के धड़कें न जहाँ साँसों में 
उस बस्ती को कहना आदम की बस्ती क्या । 

गहरे उतरो, जो पाना चाहो तुम मोती 
चिंता क्यों, ये बाज़ी महँगी क्या, सस्ती क्या । 

कुछ न मिलेगा तुझको ' विर्क ' अधूरेपन से 
जब तक भूल न जाएँ खुद को, वो मस्ती क्या । 

दिलबाग विर्क 
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मंगलवार, सितंबर 16, 2014

मिलेंगे यहाँ पर शिकारी बहुत ।

चढ़ी है वफ़ा की खुमारी बहुत 
खबर है,  मिले हार भारी बहुत । 

शिकायत न कर यार, खुद रख नज़र 
मिलेंगे यहाँ पर शिकारी बहुत । 

उसी ने दिए थे हमें जख्म ये 
करे आज तीमारदारी बहुत । 

मेरे ख्याल किस रंग में ढल गए 
न उतरी, नज़र थी उतारी बहुत । 

न छोड़े किसी को कभी वक्त ये 
दिखाओ भले होशियारी बहुत । 

तमाशा दिखाएँ, करें कुछ नहीं
यहाँ ' विर्क ' से हैं मदारी बहुत । 

दिलबाग विर्क 
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बुधवार, सितंबर 10, 2014

हो सका तो जख़्म छुपाऊँगा

पता नहीं इस खेल में क्या पाउँगा 
मगर मुहब्बत में किस्मत आजमाऊँगा 
तिनका हूँ तिनके की औकात न पूछ 
हवा चली तो न जाने किधर जाऊँगा । 

आना-न-आना तुम्हारी मर्जी होगी 
कल भी बुलाया था, कल फिर बुलाऊँगा । 

लोगों के हँसने से भी क्या होना है 
फिर भी हो सका तो जख़्म छुपाऊँगा । 

समेटना ही होगा ग़म आगोश में 
प्यार रुसवा होगा अगर अश्क़ बहाऊँगा । 

वफ़ा की सलीब ' विर्क ' कंधों पर होगी 
जब भी लौटकर तेरे शहर आऊँगा । 

दिलबाग विर्क 
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काव्य संकलन - काव्य गौरव 
संपादक - मोहन कुमार 
प्रकाशन - आकृति प्रकाशन , पीलीभीत ( उ. प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2007 

बुधवार, सितंबर 03, 2014

उसूल तेरे शहर के

काँटे बनकर चुभे हैं फूल तेरे शहर के 
मेरी मौत बन गए उसूल तेरे शहर के । 

अरमां मेरे प्यार के चौराहे पर लुट गए 
तमाशबीन थे शख़्स मा'कूल तेरे शहर के । 

ये बदर्दी क्या जानें दर्द किसी के दिल का 
ख़ुद में ही हैं लोग मशगूल तेरे शहर के । 

वफ़ा को उड़ा ले गई आँधी बेवफाई की 
सच की दास्तां बन गए अमूल तेरे शहर के । 

प्यार करना गुनाह था इस बस्ती-ए आदम में 
आँसुओं से चुकाए महसूल तेरे शहर के । 

तड़प-तड़प कर मरने की दी ' विर्क ' सज़ा तूने 
सब जुल्मो-सितम किए हैं कबूल तेरे शहर के 

दिलबाग विर्क 
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काव्य संकलन - शून्य से शिखर तक 
संपादक - आचार्य शिवनारायण देवांगन ' आस '
प्रकाशन - महिमा प्रकाशन , दुर्ग ( छत्तीसगढ़ )
प्रकाशन वर्ष - 2007
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