कभी सोचते हैं हम, ओढ़कर नक़ाब मसखरे हो जाएँ
भूल ज़िंदगी के ग़म तमाम, ज़िंदगी से परे हो जाएँ ।
अपनी तमन्नाओं के वजूद का मिटाकर नामो-निशां
किसी के हाथों की मेंहदी, बाँहों के गजरे हो जाएँ ।
गर सोच के मंजर हक़ीक़त में बदलें तो ठीक, नहीं तो
छोड़कर सारी समझदारियाँ चलो हम सिरफिरे हो जाएँ ।
पीते हैं दिन-रात मय साकी, बस इतना मक़सद है
हम बदनाम तो पहले ही बहुत हैं, अब बुरे हो जाएँ ।
तुम मुहब्बत को छोड़ो, नफरत को आजमाकर देखो
मुहब्बत में उजड़े हैं, शायद नफरत से हरे हो जाएँ ।
खरों के साथ-साथ खोटे भी चलते हैं इस जमाने में
जीने के लिए ' विर्क ' थोड़े खोटे, थोड़े खरे हो जाएँ ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - काव्य गौरव
संपादक - मोहन कुमार
प्रकाशक - आकृति प्रकाशन, पीलीभीत ( उ. प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2007
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