वो बातें मुहब्बत की सुनाता रहा
मैं बैठा अपने जख़्म सहलाता रहा ।
मैं बैठा अपने जख़्म सहलाता रहा ।
मुझे गवारा न था सामने से हटना
वो बार-बार निशाना आज़माता रहा ।
कितनी जालिम होती है ये याद भी
इसका वजूद मेरी नींद उड़ाता रहा ।
इस दिल का क्या करें, ये कहे उसे अपना
जो शख्स जख़्म देकर मुस्कराता रहा ।
मझधार में उठे तूफां ने रोक लिया
यूँ तो कश्तियों को किनारा बुलाता रहा ।
भूल हुई ' विर्क ' दिल की बातें मानकर
ये हर बार कहीं-न-कहीं उलझाता रहा ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - काव्य गंगा
संपादक - रविन्द्र शर्मा
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर ( उ.प्र. )
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर ( उ.प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2008
3 टिप्पणियां:
कितनी जालिम होती है ये याद भी
इसका वजूद मेरी नींद उड़ाता रहा ।
वाह ! बहुत उम्दा।
बहुत उम्दा !
रोबोट टेस्ट हटा दें
विस्मित हूँ !
बहुत उम्दा गजल
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