बुधवार, दिसंबर 10, 2014

वो निशाना आज़माता रहा

वो बातें मुहब्बत की सुनाता रहा 
मैं बैठा अपने जख़्म सहलाता रहा । 
मुझे  गवारा न था सामने से हटना 
वो बार-बार निशाना आज़माता रहा  

कितनी जालिम होती है ये याद भी 
इसका वजूद मेरी नींद उड़ाता रहा । 

इस दिल का क्या करें, ये कहे उसे अपना 
जो शख्स जख़्म देकर मुस्कराता रहा । 

मझधार में उठे तूफां ने रोक लिया 
यूँ तो कश्तियों को किनारा बुलाता रहा । 

भूल हुई ' विर्क ' दिल की बातें मानकर 
ये हर बार कहीं-न-कहीं उलझाता रहा । 

दिलबाग विर्क 
*****
काव्य संकलन - काव्य गंगा 
संपादक - रविन्द्र शर्मा 
प्रकाशन - रवि प्रकाशन, बिजनौर ( उ.प्र. )

प्रकाशन वर्ष - 2008  

3 टिप्‍पणियां:

Malhotra vimmi ने कहा…

कितनी जालिम होती है ये याद भी

इसका वजूद मेरी नींद उड़ाता रहा ।

वाह ! बहुत उम्दा।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

बहुत उम्दा !
रोबोट टेस्ट हटा दें
विस्मित हूँ !

रश्मि शर्मा ने कहा…

बहुत उम्‍दा गजल

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