ये दर्द अगर दवा बन जाता
तो तू मेरा ख़ुदा बन जाता |
है मन्दिर-मस्जिद के झगड़े
काश ! हर-सू मैकदा बन जाता |
सीखा होता अगर वक्त से कुछ
इतिहास कभी नया बन जाता |
अगर वफ़ा की अहमियत होती
फिर हर कोई बा-वफ़ा बन जाता |
ख़ुश रहना अगर आसां होता तो
यह सबका फलसफ़ा बन जाता |
तुम ' विर्क ' हिम्मत न हारे होते
तो एक दिन काफ़िला बन जाता |
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - हिन्द की ग़ज़लें
संपादक - देवेन्द्र नारायण दास
प्रकाशन - मांडवी प्रकाशन, गाज़ियाबाद
प्रकाशन वर्ष - 2008
3 टिप्पणियां:
वक्त की छाती पे हम मूंग दला करते हैं
फौलादी इरादों को ले साथ चला करते हैं
वक्त के सैलाब का रूख मोड़ कर हमने
जतला दिया कि हम बवंडर बन चला करते है
वक्त भी वक्त का मोहताज है।
बेहद खूबसूरत पंक्तियां।
सार्थक प्रस्तुति।
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आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (28-12-2014) को *सूरज दादा कहाँ गए तुम* (चर्चा अंक-1841) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
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