बुधवार, मई 04, 2016

इश्क़ के मा'ने

फूलों में तुझे हंसते हुए पाता हूँ 
तू दिखता है
परिंदों में उड़ता हुआ

जहन में चलते हैं दिन भर
ख्याल तेरे
रात को तू
डेरा जमाता है ख़्वाबों में

इन दिनों
जर्रा-जर्रा खूबसूरत लगे मुझे
तेरी खुशबू महसूस हो फिजा में

मुझे मालूम नहीं इश्क़ के मा'ने
बस तुझे सोचना अच्छा लगता है ।

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2 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (06-05-2016) को "फिर वही फुर्सत के रात दिन" (चर्चा अंक-2334) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

प्रभात ने कहा…

बेहतरीन रचना

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