( विश्व हिंदी सचिवालय मोरिशस द्वारा आयोजित अंतर्राष्ट्रीय कहानी प्रतियोगिता में सांत्वना पुरस्कार प्राप्त कहानी )
" अभी तो मेरे हाथों की मेहँदी भी नहीं उतरी और आप …." - शारदा ने अपने आंसू पोंछते हुए डबडबाई आवाज़ में अपने पति राधेश्याम से पूछा ,लेकिन राधेश्याम ने उसे बात पूरी नहीं करने दी और बीच में ही उसे टोकते हुए बोला – " तुम सारी की सारी औरतें ही एक जैसी होती हो , मैं तुम्हारी मेहँदी को देखता रहूँ या कुछ कमाई करूं ? "
" अभी तो मेरे हाथों की मेहँदी भी नहीं उतरी और आप …." - शारदा ने अपने आंसू पोंछते हुए डबडबाई आवाज़ में अपने पति राधेश्याम से पूछा ,लेकिन राधेश्याम ने उसे बात पूरी नहीं करने दी और बीच में ही उसे टोकते हुए बोला – " तुम सारी की सारी औरतें ही एक जैसी होती हो , मैं तुम्हारी मेहँदी को देखता रहूँ या कुछ कमाई करूं ? "
" कमाई तो यहाँ भी हो सकती है |"
" यहाँ क्या खाक कमाई होती है , खेत में फसल तो होती नहीं , कर्ज़ दिनों-दिन बढ़ता जा रहा है, अगर कुछ दिन और खेती से कमाई की उम्मीद में बैठे रहे तो ये रही – सही जमीन भी बिक जाएगी | "