चुन ली राह ख़ुद को तड़पाने की
क्यों की ख़ता तूने दिल लगाने की।
ये हसीनों की आदत होती है
चैन चुराकर नज़रें चुराने की।
जिन्हें घर भरने से फ़ुर्सत नहीं
वो क्या करेंगे फ़िक्र ज़माने की।
हम न आते तो गिला भी करते
हिम्मत तो की होती बुलाने की।
चाहा ही नहीं हालात बदलना
सब कोशिशें हैं, जी बहलाने की।
आदमी को ‘विर्क’ समझा ही नहीं
चाहत दिल में ख़ुदा को पाने की।
दिलबागसिंह विर्क
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6 टिप्पणियां:
आदमी को ‘विर्क’ समझा ही नहीं
चाहत दिल में ख़ुदा को पाने की।
...वाह..लाज़वाब
आपकी लिखी रचना "पांच लिंकों का आनन्द में" शुक्रवार 22 सितम्बर 2017 को लिंक की गई है.................. http://halchalwith5links.blogspot.com पर आप भी आइएगा....धन्यवाद!
बहुत खूब लिखा है आदरणीय विर्क जी ।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (22-09-2017) को "खतरे में आज सारे तटबन्ध हो गये हैं" (चर्चा अंक 2735) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत ही सुन्दर....
सुंदर अभिव्यक्ति..
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