बुधवार, जून 06, 2018

न हम ही बेवफ़ा हुए, न उनसे ही वफ़ा हुई

तुझसे मुहब्बत करने की ये कैसी सज़ा हुई 
कुछ ज़ख़्म ऐसे मिले, न जिनकी दवा हुई ।

दिल के गुलशन में अब महकेंगे फूल तो कैसे 
तुम्हारे साथ ही, बहारों की रुत हमसे खफ़ा हुई। 

ऐसा तो नहीं कि ख़ुदा पर एतबार न रहा हो 
बस बेबसी है ये कि न हमसे कोई दुआ हुई ।

मेरे वतन के लोग इतने संगदिल न थे कभी 
अमनो-चैन खो गया है, ये किसकी बद्दुआ हुई। 

इस जलते दिल को सुकूं मयस्सर होता तो कैसे
न हम ही बेवफ़ा हुए, न उनसे ही वफ़ा हुई ।

चंद पल तड़पने के बाद ‘विर्क’ ख़ामोश हो गए 
तुम क्या जानो, कब हमारे अरमानों की क़ज़ा हुई ।  

दिलबागसिंह विर्क
*****

4 टिप्‍पणियां:

Anita ने कहा…

मेरे वतन के लोग इतने संगदिल न थे कभी
अमनो-चैन खो गया है, ये किसकी बद्दुआ हुई।

वाह ! बेहद उम्दा गजल..

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (08-06-2018) को "शिक्षा का अधिकार" (चर्चा अंक-2995) (चर्चा अंक 2731) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

राजा कुमारेन्द्र सिंह सेंगर ने कहा…

आपकी इस पोस्ट को आज की बुलेटिन उपग्रह भास्कर एक और ब्लॉग बुलेटिन में शामिल किया गया है.... आपके सादर संज्ञान की प्रतीक्षा रहेगी..... आभार...

संजय भास्‍कर ने कहा…

भाव भरे शब्दों के साथ

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