बिना कोई दलील सुने मेरी वफ़ा जहालत हो गई
क़ाज़ी थे ख़ुद, उनकी मर्ज़ी फ़ैसला-ए-अदालत हो गई।
मेरे हाथ की लकीरों में क्या लिख दिया ख़ुदा तूने
यूँ बेसबब परेशान रहना मेरी आदत हो गई।
मुहब्बत के साए सिरों पर नहीं रहे अब किसी के
अपनों के पहलू में भी नफ़रतों की तमाज़त हो गई।
वहशियत की तरफ़दारी न करें लोग तो क्या करें
शरीफ़ों के शहर में ही जब रुसवा शराफ़त हो गई।
ये आदमी की इबादत करे, वो आदमी से सियासत
हार जाएगा दिल, गर इसकी दिमाग़ से बग़ावत हो गई।
यह सारा ज़माना ही ‘विर्क’ बेवफ़ाओं का है
वो भी बेवफ़ा हुए तो कौन-सी क़ियामत हो गई।
दिलबागसिंह विर्क
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