क्यों हम इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को सज़ा कहें
आओ प्यार को इबादत, महबूब को ख़ुदा कहें।
मुझे मालूम नहीं, किस शै का नाम है वफ़ा
तूने जो भी किया, हम तो उसी को वफ़ा कहें।
ख़ुद को मिटाना होता है प्यार पाने के लिए
राहे-इश्क़ के बारे में बता और क्या कहें।
मुश्किलों को देखकर माथे पर शिकन क्यों है
हम ज़ख़्मों को इनायत, कसक को दवा कहें।
ख़ुद को बदलो, लोगों की फ़ितरत बदलेगी नहीं
चलो ज़माने से मिली हर बद्दुआ को दुआ कहें।
माना तुझसे ‘विर्क’ निभाई न गई क़समें मगर
तुझे महबूब कहा था, अब कैसे बेवफ़ा कहें।
दिलबागसिंह विर्क
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3 टिप्पणियां:
वाह।
अयोध्या का इसे रामलला कहें। इसमें परवरदिगार का वासा है। बेहतरीन ग़ज़ल कही है विर्क साहब ने।
satshriakaljio.blogspot.com
वाह !लाजवाब सर हर बंद 👌
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