आँखों के मैख़ाने से
पिला दे जाम साक़िया
मैंने कर दी है
ज़िंदगी तेरे नाम साक़िया।
तू बदनाम लूटने के
लिए, मैं लुटने आया हूँ
मेरी वफ़ा कब माँगे,
कोई इनाम साक़िया।
दुनियादारी निभाना
या फिर मुहब्बत ही करना
लग ही जाएगा
कोई-न-कोई इल्ज़ाम साक़िया।
दिन की ख़ताएँ मज़ा
किरकिरा कर देती हैं वरना
सुहानी होती है,
ज़िंदगी की हर शाम साक़िया।
लोगों को देखकर
संगदिल बनना तो ठीक नहीं
तू बाँटता रह
ख़ुशियाँ, यही तेरा काम
साक़िया।
पागल दुनिया वाले ‘विर्क’ नफ़रतों में जी रहे हैं
देना ही होगा तुझको
मुहब्बत का पैग़ाम साक़िया।
2 टिप्पणियां:
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शुक्रवार (07-12-2018) को "भवसागर भयभीत हो गया" (चर्चा अंक-3178) पर भी होगी।
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सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
बहुत अच्छी रचना दिलबाग जी
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