गुरुवार, फ़रवरी 03, 2011

अग़ज़ल - 9

क्यों इतना बेचैन है , क्यों इतना बेकरार है 
जीत का पहला कदम मान इसे , ये जो हार है |
बेदाग होकर भी हम हुए किसी काम के नहीं 
रौशन  है  उससे  रात  , जो  चाँद  दागदार  है |  

वफा का इम्तिहान देने की मोहलत तो दे मुझे 
फिर  मुझको  बेवफा  कहने  का  तू  हकदार  है |

शोहरत  पाकर  लोग  अक्सर  बदल  जाते  हैं
पता नहीं इसमें शोहरत  का कितना खुमार है |

 कौन बा-वफा , कौन बेवफा , ये मसला छोटा नहीं 
अपनी  निगाहों   में  तो  हर  कोई  वफादार  है |

चाहत  को  अंजाम  देने  का  हुनर  नहीं  आता  
वरना ' विर्क ' हर शख्स ख़ुशी का तलबगार है |

दिलबाग विर्क 
* * * * *

8 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

.

@-वफा का इम्तिहान देने की मोहलत तो दे मुझे
फिर मुझको बेवफा कहने का तू हकदार है।

बेहद शानदार ग़ज़ल , अक्षर-अक्षर सत्य लिखा है ।
बहुत पसंद आयी।

.

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

आदरणीय zeal जी
सदर प्रणाम
आपकी टिप्पणियाँ उत्साह वर्धक हैं . इनसे और अच्छा लिखने की प्रेरणा मिलती है . इसके लिए मैं आपका आभारी हूँ . आशा है आपका स्नेह बना रहेगा .

विशाल ने कहा…

बेदाग होकर भी हम हुए किसी काम के नहीं
रौशन है उससे रात , जो चाँद दागदार है .

बहुत ही खूबसूरत है ग़ज़ल

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत है ग़ज़ल

संजय भास्‍कर ने कहा…

बहुत ही खूबसूरत है ग़ज़ल

News And Insights ने कहा…

मैं तो पहले दिन से ही आपके गजलों का दीवाना हूँ दिलबाग जी

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

वफा का इम्तिहान देने की मोहलत तो दे मुझे
फिर मुझको बेवफा कहने का तू हकदार है........वाह बहुत खूब



बेवफाई करने वाले ...वफ़ा की कीमत क्या जाने ...

डॉ. दिलबागसिंह विर्क ने कहा…

thanks

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