शहर में तैनात
सेना और पुलिस के जवान
घूर रहे हैं
हर आने - जाने वाले
व्यक्ति को .
कुछ दिन पहले
शहर में हुए
एक दंगे ने
शक के दायरे में
ला दिया है
हर आदमी को .
दंगे की आग
अब बुझ चुकी है
माहौल सामान्य हो रहा है
धीरे - धीरे
लेकिन
दंगे के दौरान
हिंसक जानवर बनने के कारण
शक के दायरे में आया आदमी
अभी तक
बाहर नहीं निकल पाया
उस छवि से .
अक्सर
दंगों के बाद
वक्त लगता है
विश्वास बहाली में
वक्त लगता है
शक के दायरे से बाहर निकलकर
आदमी को
हिंसक जानवर से
पुन: आदमी बनने में .
* * * * *
6 टिप्पणियां:
अक्सर
दंगों के बाद
वक्त लगता है
विश्वास बहाली में
वक्त लगता है
शक के दायरे से बाहर निकलकर
आदमी को
हिंसक जानवर से
पुन: आदमी बनने में .
सार्थक रचना....बधाई...
बहुत अच्छा होगा जिस दिन आदमी फ़िर से इंसान बन जाएगा....बस इतना ही काफ़ी है
वक्त लगता है
शक के दायरे से बाहर निकलकर
आदमी को
हिंसक जानवर से
पुन: आदमी बनने में .
सच्चाई को वयां करती हुई बहुत अच्छी कविता।
अक्सर
दंगों के बाद
वक्त लगता है
विश्वास बहाली में ..
बेहतरीन रचना। यदि आपस में प्यार हो और एक दुसरे का सम्मान हो तो दंगे नहीं होंगे और विश्वास कायम रह सकेगा ।
.
मैं ज़रूरी काम में व्यस्त थी इसलिए पिछले कुछ महीनों से ब्लॉग पर नियमित रूप से नहीं आ सकी!
बहुत ख़ूबसूरत और लाजवाब रचना लिखा है आपने! बधाई!
sarthak aur sajeev kavita.
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