जब भी वह
कुंती को दोषी ठहराकर
द्वंद्व से मुक्ति पाना चाहता है
तभी उसे याद आती है स्थिति
इस समाज की ।
क्या यह समाज
कुंवारी माता को सहन कर पाता ?
क्या उसकी माता को
हस्तिनापुर अपनी वधु बनाता ?
क्या वह पांडु का पुत्र कहलाता ?
आज उसे
जिन पांडवों का भाई
बताया जा रहा है
क्या वह उन शूरवीरों का
भाई बन पाता ?
प्रश्नों की इस अटूट श्रृंखला का
कोई उत्तर तो नहीं
मगर इससे झलकती है
निर्दोषता कुंती की ।
उसकी सोच बार-बार
पहुंचती है इस निष्कर्ष पर
कि वह भी
उसी की तरह
नियति की शिकार है
सारा दोष तो उस समाज का है
जो रूढ़ियों से बीमार है ।
यह समाज क्या है ?
आखिर किसने बनाया है इसे ?
क्या कर्ण
क्या अर्जुन
क्या कृष्ण
क्या दुर्योधन
इससे बाहर हैं ?
क्या कुंती
क्या राधा
इससे बाहर है ?
यह समाज इंसानों ने बनाया है
और खुद इन्सान ही
इसका शिकार है ।
इन्सान को मुक्त कराना
क्या एक वीर का कर्तव्य नहीं ?
अत्याचार का विरोध करना
क्या एक पुरुष का धर्म नहीं ?
यह सोचते ही
कर्ण का खून उबलने लगता है
मगर आज उसे
समाज के सम्बन्ध में
निर्णय नहीं करना है
उसका निर्णय तो
कौरवों - पांडवों में से
किसी एक का चयन करना है
यह चुनाव उसकी सीमा है
और इसे याद करते ही
वह फिर शांत हो जाता है ।
( क्रमश: )
* * * * *
6 टिप्पणियां:
जबरदस्त!!!
बेहतरीन प्रस्तुति ।
प्रश्नों की इस अटूट श्रृंखला का
कोई उत्तर तो नहीं
मगर इससे झलकती है
निर्दोषता कुंती की ।
प्रश्नों के घेरे में कैद कर्ण की मानसिकता का बहुत सुन्दर वर्णन|
bahut acchhi prastuti...ankhe khol dene wali.
क्या बात है, बहुत सुंदर
बहुत सही ...विचारणीय प्रस्तुति ....
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