रोना आया , कभी अपने हाल पर हंसी आई
बुरा न था मगर, मुझ पर हावी होती गई बुराई ।
मैंने तो सोचा था, ढल जाएगा गम का यह मौसम
लेकिन लम्बी होती चली गई खुशियों से जुदाई ।
क्यों कोई मसीहा उतरे ही नहीं इस जमीन पर
क्यों इन्सां और इन्सां के बीच बढती जाए खाई ?
समझ नहीं आया मुझे क्यों दुश्मन हुआ जमाना
क्या गुनाह किया था मैंने , थी अगर वफा निभाई ।
क्यों चहकते हैं नफरतों के फूल ऐ दुनियावालो
क्यों हैं मुहब्बत की कलियाँ मुरझाई - मुरझाई ?
बहुत कुछ पाया है मगर कुछ खाली-खाली सा है
हैरान हूँ मैं , हमने है ये कैसी तकदीर पाई ।
भीड़ में विर्क याद नहीं रहती अपनी औकात
गर सोचना चाहो खुद को तो मांगना तन्हाई ।
* * * * *
5 टिप्पणियां:
बहुत कुछ पाया है मगर कुछ खाली-खाली सा है
हैरान हूँ मैं , हमने है ये कैसी तकदीर पाई ।
वाह बहुत खूब .......
बहुत शानदार रही यह अगजल!
waah............virk ji bahut hi sanvedanshil rachna aapki........
क्यों चहकते हैं नफरतों के फूल ऐ दुनियावालो
क्यों हैं मुहब्बत की कलियाँ मुरझाई - मुरझाई ?
बहुत खूब .......
खूबसूरत गजल ....
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