गुरुवार, जनवरी 05, 2012

दीवारें ( कविता )

धर्मों के बीच 
जातियों के बीच 
इंसानों के बीच 
कब खिंचती हैं 
ईंट-पत्थर की दीवारें 
बेशक 
एक घर को
दो घरों में बांटती है दीवार 
एक धरती को 
दो मुल्कों में बांटती है सरहद 
मगर 
ये दीवारें
ये सरहदें 
बाद की बात हैं 
पहले बंटती है 
आदमी की सोच
पहले खिंचती है दीवार 
मन-मस्तिष्क में 
हम छोड़ते ही नहीं
 सोचना
दीवारों के बारे में 
दीवारों का गिरना 
मुश्किल तो नहीं 
बशर्ते 
हम छोड़ सकें 
सोचना 
दीवारों के बारे में 
काश ! ऐसा हो ।

 * * * * *

6 टिप्‍पणियां:

केवल राम ने कहा…

वर्तमान हालातों के दृष्टिगत यह रचना प्रासंगिक है .....!

ZEAL ने कहा…

bahut sundar rachna , kaash ye deewarein na hotee..

Urmi ने कहा…

आपको एवं आपके परिवार के सभी सदस्य को नये साल की ढेर सारी शुभकामनायें !
बहुत ख़ूबसूरत रचना !

sangita ने कहा…

vicharniy post hae.

Atul Shrivastava ने कहा…

काश ऐसा हो..........

गहरे भावों के साथ सुंदर प्रस्‍तुति।

Vaishnavi ने कहा…

aapki kavita padkar javed akthar ka geet yaad aa gaya,panchi,pawan hawa ke jhonke koi sarhad na inhe roke,sarhade insaano ke liye hai ,socho maine or tumne kya paya insaan hoke!!!!!!

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