बुधवार, नवंबर 13, 2013

तुझे सोचता है जहन रात - दिन

परिन्दे उजाड़ें चमन रात-दिन
सुलगता रहे दिल, जलन रात-दिन ।

मिरे देश की है सियासत बुरी
यहाँ बिक रहे हैं कफन रात-दिन ।

पुरानी हुई बात तहजीब की
बदलने लगा है चलन रात-दिन ।

रहा रोग अब सिर्फ दिल तक नहीं
तुझे सोचता है जहन रात - दिन ।

बँधा था सदा फर्ज की डोर से
किया ख्वाहिशों का दमन रात-दिन ।

निराशा मिली ' विर्क ' औलाद से
परेशान रहता वतन रात-दिन ।
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6 टिप्‍पणियां:

virendra sharma ने कहा…

रोज़मर्रा के रोज़नामचे से दो चार होने की तहरीर है ये गज़ल। खूब सूरत नसीहत आशीष है ये गज़ल।

व्यक्ति और समष्टि एक राष्ट्र एक पूरी शती की पीर समेटे है यह गज़ल। हर अशआर पीर का सांझा अनुभूति तदानुभूति कराता है -

मिरे देश की है सियासत बुरी
यहाँ बिक रहे हैं कफन रात-दिन ।

पुरानी हुई बात तहजीब की
बदलने लगा है चलन रात-दिन ।

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

हर अशआर में एक अलग अनुभूति का एहसास है!
नई पोस्ट लोकतंत्र -स्तम्भ

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल रविवार (22-11-2020) को  "अन्नदाता हूँ मेहनत की  रोटी खाता हूँ"   (चर्चा अंक-3893)   पर भी होगी। 
-- 
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है। 
--   
हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।  
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सादर...! 
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' 
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सुशील कुमार जोशी ने कहा…

सुन्दर।

Anuradha chauhan ने कहा…

बहुत सुंदर

अनीता सैनी ने कहा…

बहुत ही सुंदर सृजन सर।

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