काँटे बनकर चुभे हैं फूल तेरे शहर के
मेरी मौत बन गए उसूल तेरे शहर के ।
अरमां मेरे प्यार के चौराहे पर लुट गए
तमाशबीन थे शख़्स मा'कूल तेरे शहर के ।
ये बदर्दी क्या जानें दर्द किसी के दिल का
ख़ुद में ही हैं लोग मशगूल तेरे शहर के ।
वफ़ा को उड़ा ले गई आँधी बेवफाई की
सच की दास्तां बन गए अमूल तेरे शहर के ।
प्यार करना गुनाह था इस बस्ती-ए आदम में
आँसुओं से चुकाए महसूल तेरे शहर के ।
तड़प-तड़प कर मरने की दी ' विर्क ' सज़ा तूने
सब जुल्मो-सितम किए हैं कबूल तेरे शहर के
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - शून्य से शिखर तक
संपादक - आचार्य शिवनारायण देवांगन ' आस '
प्रकाशन - महिमा प्रकाशन , दुर्ग ( छत्तीसगढ़ )
प्रकाशन वर्ष - 2007
7 टिप्पणियां:
तड़प-तड़प कर मरने की दी ' विर्क ' सज़ा तूने
सब जुल्मो-सितम किए हैं कबूल तेरे शहर के। बहुत ही सुन्दर। लिखते रहो।
Umda Panktiyan
प्यार करना गुनाह था इस बस्ती-ए आदम में
आँसुओं से चुकाए महसूल तेरे शहर के....:)
बहुत खूब ... हर शेर लाजवाब ... सुभानल्ला ..
शानदार गजल .... कौन शेर उम्दा है कहना मुश्किल
बहुत ही खूबसूरत गजल।
एक -एक शेर में काफी वजन है परन्तु मापना कठिन।
अहले-क़लम में बंद की कुल्फ़तों की दास्ताँ..,
ज़ब्ते-दिल को हर कहल मकबूल तेरे शहर के.....
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