कभी सोचते हैं हम, ओढ़कर नक़ाब मसखरे हो जाएँ
भूल ज़िंदगी के ग़म तमाम, ज़िंदगी से परे हो जाएँ ।
अपनी तमन्नाओं के वजूद का मिटाकर नामो-निशां
किसी के हाथों की मेंहदी, बाँहों के गजरे हो जाएँ ।
गर सोच के मंजर हक़ीक़त में बदलें तो ठीक, नहीं तो
छोड़कर सारी समझदारियाँ चलो हम सिरफिरे हो जाएँ ।
पीते हैं दिन-रात मय साकी, बस इतना मक़सद है
हम बदनाम तो पहले ही बहुत हैं, अब बुरे हो जाएँ ।
तुम मुहब्बत को छोड़ो, नफरत को आजमाकर देखो
मुहब्बत में उजड़े हैं, शायद नफरत से हरे हो जाएँ ।
खरों के साथ-साथ खोटे भी चलते हैं इस जमाने में
जीने के लिए ' विर्क ' थोड़े खोटे, थोड़े खरे हो जाएँ ।
दिलबाग विर्क
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काव्य संकलन - काव्य गौरव
संपादक - मोहन कुमार
प्रकाशक - आकृति प्रकाशन, पीलीभीत ( उ. प्र. )
प्रकाशन वर्ष - 2007
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6 टिप्पणियां:
कभी सोचते हैं हम, ओढ़कर नक़ाब मसखरे हो जाएँ
भूल ज़िंदगी के ग़म तमाम, ज़िंदगी से परे हो जाएँ ।
सुंदर और भावपूर्ण पंक्तियां
सादर धन्यवाद।
वाह सुंदर गजल आंनद आ गया . वाह
सुंदर गजल
आपकी ये रचना चर्चामंच http://charchamanch.blogspot.in/ पर चर्चा हेतू 11 अक्टूबर 2014 को प्र्स्तुत की जाएगी। आप भी पधारिए। स्वयं शून्य
बहुत सुंदर गजल.
Bahut hi lajawaab ... Kahre hone aur sarfire hone ke baad saari mushkil khatm :)
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