जो कल
कल तक सामान्य था
आज रहस्य बताया जा रहा है
कर्ण को
कभी कृष्ण द्वारा
तो कभी कुंती द्वारा
उसका इतिहास सुनाया जा रहा है ।
शायद यह नियति ही है
जो उसे
पहले धकेलकर युद्ध में
अब खींच रही है पीछे से
भर रही है
उसके तरकश को
तीरों के स्थान पर
भ्रातृत्व के भावों से ।
इन्हीं भावों की बदौलत
बढ़ रहा है उसका अन्तर्द्वन्द्व
और कुंद हो रही है धार
उसके क्रोध की ।
मगर अब तो
बहुत देर हो चुकी है
युद्ध हो रहा है
पूरे जोश से
और कर्ण का वैर है
अपने सहोदरों के होश से
उन्हें मौत की नींद सुलाना ही
उसका धर्म है ।
युद्ध,
बस यही उसका एकमात्र कर्म है,
लेकिन क्या इतना आसान है
इस कर्म को निभाना
अपने आपको अपनों से काटकर
धर्म को संभालना ?
कौन देखेगा दुविधा उसके मन की
कौन जानेगा
कि उठ रहा उसके दिल में
कैसा तूफ़ान है,
सब जानते हैं बस इतना
कि कल कर्ण ने सम्भालनी
कौरव सेना की कमान है ।
नदी के किनारे आज
एक समुद्र खड़ा है
नदी जितनी शांत है
यह समुद्र
उतना ही उद्विग्न है ।
इसमें
विचारों की एक लहर डूबती है तो
दूसरी उससे भी अधिक
प्रचंड होकर उभरती है ।
समझ नहीं आता इस समुद्र को
इस समुद्र के मालिक को
कि क्या हो रहा है
बस चुपचाप वह
दिल के ज्वार को
आँखों के रास्ते बहा रहा है
यह सोचकर कि इससे
कुछ-न-कुछ तो कम होगा
बेग लहरों का
मगर ज्यों-ज्यों डूब रहा है सूरज
त्यों-त्यों डूब रहा है दिल
उस व्याकुल अधीर पुरुष का
कर्ण का ।
( क्रमश: )
* * * * *
8 टिप्पणियां:
आपकी धारावाहिक रचना बहुत सुन्दर है!
आगे का भाग भी पढ़ने की इच्छा जाग्रत हो गई है!
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अच्छे शब्दों का प्रयोग , भावों की सुंदर अभिव्यक्ति ...
agle bhaag ke aane ka intzaar hai
naye roop mein bahut badiya aitihasik vratant padhna bahut achha laga..aabhar!!
कर्ण का अंतर्द्वंद बहुत अच्छे से व्यक्त हो रहा है...अच्छी प्रस्तुति|
कर्ण की मनोदशा को बखूबी उकेरा है।
वाकई कभी किसी ने कर्ण के बारे में ज्यादा जानेने कि चेष्टा ही नहीं कि ....जिसने भी जाना केवल इतना कि कुंती पुत्र कर्ण दान वीर कर्ण था मगर उसके मन कि व्यथा को न कोई जान पाया ना ही किसी ने जानने कि चेष्टा ही कि आपने कर्ण कि मनोदशा को बखूबी दर्शाया है आभार
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