भले मय पिला दे या फिर पिला दे जहर साकी
मगर मेरी मुहब्बत को रुसवा न कर साकी ।
पहले उसे देखता था, अब खुद को सोचता हूँ
उस वस्ल से तो कहीं बढ़कर है ये हिज्र साकी ।
रुका हूँ इसलिए कि तरोताजा होकर चल सकूं
अभी मुकाम कहाँ, बड़ा लम्बा है सफर साकी ।
घर के ही लोग घर को मकान बना देते हैं
वरना कौन होना चाहता है बेघर साकी ।
जिन्दगी का स्याह रुख देखा हो जिसने, उसके
दिल के किसी कोने में बैठा ही रहे डर साकी ।
गर विर्क जिन्दगी ही नशा बने तो उम्र गुजरे
तेरी मय का नशा तो जाना है उतर साकी ।
दिलबाग विर्क
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मगर मेरी मुहब्बत को रुसवा न कर साकी ।
पहले उसे देखता था, अब खुद को सोचता हूँ
उस वस्ल से तो कहीं बढ़कर है ये हिज्र साकी ।
रुका हूँ इसलिए कि तरोताजा होकर चल सकूं
अभी मुकाम कहाँ, बड़ा लम्बा है सफर साकी ।
घर के ही लोग घर को मकान बना देते हैं
वरना कौन होना चाहता है बेघर साकी ।
जिन्दगी का स्याह रुख देखा हो जिसने, उसके
दिल के किसी कोने में बैठा ही रहे डर साकी ।
गर विर्क जिन्दगी ही नशा बने तो उम्र गुजरे
तेरी मय का नशा तो जाना है उतर साकी ।
दिलबाग विर्क
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3 टिप्पणियां:
वाह! बहुत खूब.
जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (१६-०६-२०२१) को 'स्मृति में तुम '(चर्चा अंक-४०९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर
बेहतरीन शायरी, बहुत खूब!
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