मंगलवार, मई 14, 2013

अग़ज़ल - 57

भले मय पिला दे या फिर पिला दे जहर साकी 
मगर मेरी मुहब्बत को रुसवा न कर साकी ।

पहले उसे देखता था, अब खुद को सोचता हूँ 
उस वस्ल से तो कहीं बढ़कर है ये हिज्र साकी ।

रुका हूँ इसलिए कि तरोताजा होकर चल सकूं 
अभी मुकाम कहाँ, बड़ा लम्बा है सफर साकी ।

घर के ही लोग घर को मकान बना देते हैं 
वरना कौन होना चाहता है बेघर साकी ।

जिन्दगी का स्याह रुख देखा हो जिसने, उसके 
दिल के किसी कोने में बैठा ही रहे डर साकी ।

गर विर्क जिन्दगी ही नशा बने तो उम्र गुजरे 
तेरी मय का नशा तो जाना है उतर साकी ।

                     दिलबाग विर्क                                                       
                         *****

3 टिप्‍पणियां:

Neeraj Neer ने कहा…

वाह! बहुत खूब.

अनीता सैनी ने कहा…

जी नमस्ते ,
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल बुधवार (१६-०६-२०२१) को 'स्मृति में तुम '(चर्चा अंक-४०९७) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
सादर

Anupama Tripathi ने कहा…

बेहतरीन शायरी, बहुत खूब!

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