ख़ुदा तू ही, सिवा तेरे किसी को पूजता कब था
तेरा दर छोड़, मेरा दूसरा कोई पता कब था ।
करें शिकवा किसी से किसलिए अपनी खता का हम
लुटे हम शौक से, कोई यहाँ दिल लूटता कब था ।
उसे तो फ़िक्र थी खुद की, सदा सोचा किया खुद को
मेरी मजबूरियों को वो समझना चाहता कब था ।
सदा से बस यही फितरत रही है राजनेता की
बना सेवक, मगर सत्ता मिली तो पूछता कब था ।
मुझे बस प्यार के दो बोल मिल जाएँ, यही चाहा
ख़ुदा से ' विर्क ' मैं इसके सिवा कुछ माँगता कब था ।
दिलबाग विर्क
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10 टिप्पणियां:
विर्क जी,
गजल तो बहुत ही बेहतरीन बन पड़ी.
मुबारक,
अयंगर.
उम्दा ग़ज़ल !
नवरात्री की शुभकामनाएं
शम्भू -निशम्भु बध भाग २
Umda gazal zabardast abhivyakti......!!
लुटे हम शौक से, वर्ना कोई दिल लूटता कब था
बहुत जोरदार।
बहुत सुंदर गजल.
बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 12/10/2014 को "अनुवादित मन” चर्चा मंच:1764 पर.
बढ़िया ग़ज़ल
सुन्दर प्रस्तुती
मुबारक !
वाह! बहुत खूब!! पूरी ग़ज़ल अच्छी हुई है...दिली मुबारकबाद
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