रविवार, सितंबर 21, 2014

कोई यहाँ दिल लूटता कब था

ख़ुदा तू ही, सिवा तेरे किसी को पूजता कब था 
तेरा दर छोड़, मेरा दूसरा कोई पता कब था । 

करें शिकवा किसी से किसलिए अपनी खता का हम 
लुटे हम शौक से, कोई यहाँ दिल लूटता कब था । 

उसे तो फ़िक्र थी खुद की, सदा सोचा किया खुद को 
मेरी मजबूरियों को वो समझना चाहता कब था । 

सदा से बस यही फितरत रही है राजनेता की 
बना सेवक, मगर सत्ता मिली तो पूछता कब था । 

मुझे बस प्यार के दो बोल मिल जाएँ, यही चाहा 
ख़ुदा से ' विर्क ' मैं इसके सिवा कुछ माँगता कब था । 

दिलबाग विर्क 
*****

10 टिप्‍पणियां:

बेनामी ने कहा…


विर्क जी,

गजल तो बहुत ही बेहतरीन बन पड़ी.

मुबारक,

अयंगर.

कालीपद "प्रसाद" ने कहा…

उम्दा ग़ज़ल !
नवरात्री की शुभकामनाएं
शम्भू -निशम्भु बध भाग २

Unknown ने कहा…

Umda gazal zabardast abhivyakti......!!

Asha Joglekar ने कहा…

लुटे हम शौक से, वर्ना कोई दिल लूटता कब था

बहुत जोरदार।

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर गजल.

राजीव कुमार झा ने कहा…

बहुत सुंदर प्रस्तुति.
इस पोस्ट की चर्चा, रविवार, दिनांक :- 12/10/2014 को "अनुवादित मन” चर्चा मंच:1764 पर.

Onkar ने कहा…

बढ़िया ग़ज़ल

amit kumar ने कहा…

सुन्दर प्रस्तुती

प्रतिभा सक्सेना ने कहा…

मुबारक !

Himkar Shyam ने कहा…

वाह! बहुत खूब!! पूरी ग़ज़ल अच्छी हुई है...दिली मुबारकबाद

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