दिन बीतते गए और रातें ढलती रही
कारवां चलता गया , गुबार उडती रही ।
खामोशी आदत थी , अब मजबूरी है
मैं वही रहा , किस्मत रोज़ बदलती रही ।
छोड़ दिया इरादा शमा-ए-तरब जलाने का
आबरू मेरी सरे-बाज़ार जलती रही ।
पत्थर दिलों को पिघलाना आसां न था
मुहब्बत खुद मोम की तरह पिघलती रही ।
उन्हें गवारा न था परवाने बनना
लौ वफा की न जाने क्यों मचलती रही ।
अपनी जिन्दगी की ' विर्क ' दास्ताँ इतनी
जी तो नहीं पाए मगर साँस चलती रही ।
दिलबाग विर्क
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शमा-ए-तरब ----- आनन्द का दीप
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3 टिप्पणियां:
अपनी जिन्दगी की ' विर्क ' दास्ताँ इतनी
जी तो नहीं पाए मगर साँस चलती रही ....
भावुक कर दिया इन बेहतरीन पंक्तियों ने।
बेहतरीन रचना के लिए बहुत बधाई|
अच्छी ग़ज़ल। बधाई!
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