मंगलवार, जनवरी 18, 2011

अग़ज़ल - 7

    दिन बीतते गए और रातें ढलती रही 
    कारवां चलता गया , गुबार उडती रही ।

     खामोशी आदत थी , अब मजबूरी है  
     मैं वही रहा , किस्मत रोज़ बदलती रही ।

      छोड़ दिया इरादा शमा-ए-तरब जलाने का 
      आबरू  मेरी  सरे-बाज़ार  जलती  रही ।

      पत्थर दिलों को पिघलाना आसां न था 
      मुहब्बत खुद मोम की तरह पिघलती रही ।

       उन्हें  गवारा  न  था  परवाने  बनना 
       लौ वफा की न जाने क्यों मचलती रही ।

       अपनी जिन्दगी की ' विर्क ' दास्ताँ इतनी 
       जी तो नहीं पाए मगर साँस चलती रही ।

दिलबाग विर्क 
* * * * * 
शमा-ए-तरब ----- आनन्द का दीप
                                     * * * * *
    

3 टिप्‍पणियां:

ZEAL ने कहा…

अपनी जिन्दगी की ' विर्क ' दास्ताँ इतनी
जी तो नहीं पाए मगर साँस चलती रही ....

भावुक कर दिया इन बेहतरीन पंक्तियों ने।

Patali-The-Village ने कहा…

बेहतरीन रचना के लिए बहुत बधाई|

Dr (Miss) Sharad Singh ने कहा…

अच्छी ग़ज़ल। बधाई!

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