सोमवार, जनवरी 03, 2011

अग़ज़ल - 5

   शाम हो चुकी है , डूब रहा है आफ़ताब यारो 
  मुझे भी पिला दो अब तुम घूँट दो घूँट शराब यारो । 

 दिन तो उलझनों में बीता , रात को ख़्वाबों का डर है 
 या बेहोश कर दो या फिर कर दो नींद खराब यारो ।

 बुरी चीजों को क्योंकर गले लगा लेते हैं सब लोग 
 तुम ख़ुद ही समझो , नहीं है मेरे पास जवाब यारो ।

 जश्न मनाओ , आसानी से नहीं मिला मुझे ये मुकाम 
 ख़ूने-जिगर दे पाया है , बेवफ़ाई का ख़िताब यारो ।

 एक छोटा-सा दिल टूटा और उम्र भर के ग़म मिल गए 
 नफे में ही रहे होंगे , लगाओ थोडा हिसाब यारो ।

 किसे सजाकर रखें किसे न , बस 'विर्क' यही उलझन है
 मुहब्बत में मिला हर जख़्म निकला है लाजवाब यारो ।

दिलबाग विर्क
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