मंगलवार, अप्रैल 29, 2014

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो

तेरी याद छुपाकर सीने में
मजा आने लगा है जीने में |

मैकदे की तरफ भेजा जिसने
बुराई दिखती उसे पीने में |

हवाओं का रुख देखा न था
अब कसूर निकालो सफीने में |

रुतें बदलती हैं दिल को देखकर
आग लगे सावन के महीने में |

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो
देखो दम कितना इस नगीने में |

जीने लायक सब कुछ है यहाँ पर
क्या ढूँढ रहे ' विर्क ' दफीने में |


3 टिप्‍पणियां:

डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक' ने कहा…

बहुत उम्दा ग़ज़ल।
इस पोस्ट का लिंक कल बुधवार 30-04-2014 को चर्चामंच पर भी लगाया गया है।

prritiy----sneh ने कहा…

उतारकर सब नग, मुहब्बत पहनो
देखो दम कितना इस नगीने में |

bahut khoob kaha hai

shubhkamnayen

Anju (Anu) Chaudhary ने कहा…

वाह बहुत खूब जी

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