देखो नियति को
निर्णय के इन क्षणों में
आज वह आज़ाद नहीं
क्योंकि वह जानता है
कृतघ्नता सिर्फ कायरों का आभूषण है
और वह तो कायर नहीं ।
यदि भाइयों की रक्षा उसका धर्म है
तो क्या दोस्त की रक्षा करना
दोस्ती की रक्षा करना
धर्म नहीं है ?
वासुदेव के बताए रास्ते पर चलकर
वह युद्ध बचा सकता है
स्वयं या युधिष्टर को इन्द्रप्रस्थ देकर
दुर्योधन को
हस्तिनापुर का शासक बना सकता है
मगर यह तो अधर्म है,
विश्वासघात है
क्योंकि वह दुर्योधन को
पूरे राष्ट्र का शासक बनाने के लिए
वचनबद्ध है ।
इतना सोचते ही
उठ खड़ा होता है
एक नया द्वंद्व ।
इस द्वंद्व का विषय वह स्वयं है
उसे याद आ रही हैं
अपनी कुछ गलतियाँ
उसने सिर्फ दोस्त का समर्थन किया
दोस्ती का धर्म नहीं निभाया
रास्ते के कांटे चुनने का कर्तव्य तो चुना
लेकिन ऐसा रास्ता नहीं बताया
जिसमें पुण्य के फूल हों
समझा न पाया दुर्योधन को फर्क
सत्य-असत्य का
धर्म-अधर्म का ।
उसकी आँखें खोलने की अपेक्षा
मूँद लिया खुद अपनी ही आँखों को ।
इतना ही नहीं
उसने तो
झुठलाया है
अपने ही अस्तित्व को भी
सूत होकर भी
किसी के सूत कहने पर
जलाया है अपना तन-मन ।
क्या अपनी जाती को
एक वास्तविक तथ्य को झुठलाना
झूठा अभिमान नहीं था ?
अपनी वीरता का ढिंढोरा पीटना
क्या शूरवीरता का अपमान नहीं था ?
शूरवीरता तो स्वयं वो सूर्य है
जिसे बताने की जरूरत नहीं होती
अपनी मौजूदगी के बारे में
लेकिन रंगभूमि में
अपनी मौजूदगी दिखाकर
उसने यहाँ मित्रता प्राप्त की
वहीं शत्रुता भी खरीदी है
और शत्रुता भी
अपने ही भाइयों की ।
( क्रमश: )
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