बुधवार, दिसंबर 26, 2018

बीती ज़िंदगी नाम मेरे, एक फ़साना कर गई

ग़म का अज़ीज़, ख़ुशी से बेगाना कर गई 
तेरी चाहत हमें इस क़द्र दीवाना कर गई। 

न दिल को तसल्ली दे सके, न गिला कर सके 
तेरी ही तरह बहार भी, मुझसे बहाना कर गई। 

चाहकर भी आज़ाद हो न पाएँगे उसके असर से 
बीती ज़िंदगी नाम मेरे, एक फ़साना कर गई। 

टुकड़े-टुकड़े हुआ दिल, रोए हम लहू के आँसू 
तेरी याद ये वारदात वहशियाना कर गई। 

मेरी वफ़ा ने देखो, किया है ये कैसा सलूक 
आफ़तों की शाख पर मेरा आशियाना कर गई। 

मुहब्बत की ख़ुशबू ऐसी फैली है ज़िंदगी में 
अंदाज़ मेरा ‘विर्क’ ये शायराना कर गई। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, दिसंबर 19, 2018

कभी सोचा नहीं

कितना लंबा वफ़ा का रास्ता, कभी सोचा नहीं 
ज़ख़्म खाकर क्यों चलता रहा, कभी सोचा नहीं। 

दिल को चुप कराने के लिए तुझे बेवफ़ा कहा 
तू बेवफ़ा था या बा-वफ़ा, कभी सोचा नहीं। 

तेरी ख़ुशी माँगी है मैंने ख़ुदा से सुबहो-शाम 
असर किया कि ज़ाया गई दुआ, कभी सोचा नहीं। 

मुहब्बत की राह पर एक बार चलने के बाद 
क्या-क्या पीछे छूटता गया, कभी सोचा नहीं। 

गवारा नहीं ‘विर्क’ सितमगर के आगे झुकना 
कब तक साथ देगा हौसला, कभी सोचा नहीं। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, दिसंबर 12, 2018

असर करती दुआ क्यों नहीं

बेवफ़ा तेरी याद, तेरी तरह बेवफ़ा क्यों नहीं 
जैसे तूने किया, वैसे ये करती दग़ा क्यों नहीं ?

दर्द को हमदम बनाकर जीना क्यों चाहा मैंने
क्या बेबसी थी, मिली ज़ख़्मों की दवा क्यों नहीं ?

इंसाफ़ की देवी के हाथ में तराज़ू, आँख पर पट्टी 
ऐसे में गुनहगारों को मिलती सज़ा क्यों नहीं ?

आदमी से नाराज़ है या पत्थर हो गया है ख़ुदा 
ऐसी कौन-सी वजह है, असर करती दुआ क्यों नहीं ?

ज़ुल्मों-सितम को मिटाना ही है जब काम उसका, फिर
दहशत के इस दौर में ज़मीं पर उतरा ख़ुदा क्यों नहीं ?

वो क्यों हुए बेवफ़ा, ये पूछने का हक़ नहीं तुझे 
तू ख़ुद से पूछ ‘विर्क’ तूने छोड़ी वफ़ा क्यों नहीं ?

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, दिसंबर 05, 2018

आँखों के मैख़ाने से पिला दे जाम साक़िया


आँखों के मैख़ाने से पिला दे जाम साक़िया
मैंने कर दी है ज़िंदगी तेरे नाम साक़िया।

तू बदनाम लूटने के लिए, मैं लुटने आया हूँ
मेरी वफ़ा कब माँगे, कोई इनाम साक़िया।

दुनियादारी निभाना या फिर मुहब्बत ही करना
लग ही जाएगा कोई-न-कोई इल्ज़ाम साक़िया।

दिन की ख़ताएँ मज़ा किरकिरा कर देती हैं वरना
सुहानी होती है, ज़िंदगी की हर शाम साक़िया।

लोगों को देखकर संगदिल बनना तो ठीक नहीं
तू बाँटता रह ख़ुशियाँ, यही तेरा काम साक़िया।

पागल दुनिया वाले विर्कनफ़रतों में जी रहे हैं
देना ही होगा तुझको मुहब्बत का पैग़ाम साक़िया।

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दिलबागसिंह विर्क

बुधवार, नवंबर 28, 2018

दिल के दर्द की, किसने दवा दी है

क्यों बेमतलब शोलों को हवा दी है 
दिल के दर्द की, किसने दवा दी है। 

मैं दोस्त कहूँ उसे या फिर दुश्मन 
जिसने रातों की नींद उड़ा दी है। 

पसीजे पत्थर दिल, ये मुमकिन नहीं 
सुनाने को तो दास्तां मैंने सुना दी है। 

बड़ा महँगा पड़े है दस्तूर तोड़ना 
वफ़ा क्यों की, इसलिए सज़ा दी है। 

बाक़ी रहते हैं अक्सर ज़ख़्मों के निशां 
यूँ तो बीती हुई हर बात भुला दी है। 

अब हश्र जो भी, प्यार करके हमने 
ज़िंदगी ‘विर्क’ दांव पर लगा दी है। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, नवंबर 21, 2018

दिल की ज़मीं होती कभी बंजर नहीं

मुहब्बत की राह चलें वो, जिन्हें कोई डर नहीं 
इसमें दुश्वारियाँ हैं बहुत, आसां ये सफ़र नहीं। 

ख़ुदा की हर नियामत मौजूद है यहाँ, मगर 
जन्नत लगे दुनिया, दिखते ऐसे मंज़र नहीं।

ख़ुद पर करो यक़ीं, यहाँ रहबर हैं वही लोग 
जो राह में हैं, मंज़िल की जिन्हें ख़बर नहीं। 

प्यार के बादल से वफ़ा का पानी तो बरसाओ 
देखना, दिल की ज़मीं होती कभी बंजर नहीं। 

उन्हें क्यों होगा दर्द किसी के उजड़ने का 
दहशतगर्दों का कोई मुल्क नहीं, घर नहीं। 

दौलत, शौहरत, ख़ुदग़र्ज़ी के पर्दे हटाओ 
दिल को दिल ही पाओगे, ‘विर्क’ पत्थर नहीं।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, नवंबर 14, 2018

मेरे ख़्यालों, मेरे ख़्वाबों का मालिक तू है


कभी तुझे याद करता हूँ, कभी तुझे भूलता हूँ
ये न पूछ मुझसे, मैं कितना परेशां हुआ हूँ।

मेरे ख़्यालों, मेरे ख़्वाबों का मालिक तू है
मेरा वुजूद कहाँ है, अक्सर यही सोचता हूँ।

दीवानगी इसकी न जाने कितना रुसवा करेगी
मानता ही नहीं ये, इस दिल को बहुत रोकता हूँ।

लफ़्ज़ों के मानी बदल जाते हैं सुनते-सुनते
इसी डर से मैं कमोबेश ख़ामोश रहा हूँ ।

पत्थरों के पूजने पर मुझे कोई एतराज नहीं
मगर इससे पहले मैं संगतराश को पूजता हूँ।

दूरियाँ-नजदीकियाँ विर्ककोई मुद्दा नहीं होती
कल भी चाहता था तुझे, मैं आज भी चाहता हूँ।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, नवंबर 07, 2018

प्यार को इबादत, महबूब को ख़ुदा कहें

क्यों हम इस ख़ूबसूरत ज़िंदगी को सज़ा कहें 
आओ प्यार को इबादत, महबूब को ख़ुदा कहें। 

मुझे मालूम नहीं, किस शै का नाम है वफ़ा
तूने जो भी किया, हम तो उसी को वफ़ा कहें। 

ख़ुद को मिटाना होता है प्यार पाने के लिए 
राहे-इश्क़ के बारे में बता और क्या कहें। 

मुश्किलों को देखकर माथे पर शिकन क्यों है 
हम ज़ख़्मों को इनायत, कसक को दवा कहें।

ख़ुद को बदलो, लोगों की फ़ितरत बदलेगी नहीं 
चलो ज़माने से मिली हर बद्दुआ को दुआ कहें। 

माना तुझसे ‘विर्क’ निभाई न गई क़समें मगर 
तुझे महबूब कहा था, अब कैसे बेवफ़ा कहें।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 31, 2018

दूर तक नज़र नहीं आता किनारा

कुछ इस क़द्र गर्दिश में है मेरा सितारा 
कहीं दूर तक नज़र नहीं आता किनारा। 

उन्हें गवारा नहीं मेरी हाज़िरजवाबी 
मुझे ख़ामोश रहना, नहीं है गवारा।

अपने हुनर की दाद पाना चाहता होगा 
तभी ख़ुदा ने चाँद को ज़मीं पर उतारा। 

बस अपनी मुलाक़ात हो नहीं पाती वरना 
गैरों से रोज़ पूछता हूँ, मैं हाल तुम्हारा। 

बीच रास्ते में कहीं साथ छोड़ देता है ये 
क़दमों के साथ घर न आए, दिल आवारा। 

फ़र्ज़ानों की नज़र में तो दीवाना ही हूँ मैं 
कौन पागल है ‘विर्क’, जिसने मुझे पुकारा।  

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 24, 2018

फीका-फीका लगे चाँद का शबाब

जब से देखी है तेरे चेहरे की तबो-ताब
फीका-फीका लगे तब से चाँद का शबाब। 

ये तन्हाइयाँ, ये दूरियाँ अब गवारा नहीं इसे 
क्या बताएँ तुम्हें, ये दिल है कितना बेताब।  

किताबे-इश्क़ पढ़ने का हुआ है ये असर 
आते हैं अब हमें तो बस तेरे ही ख़्वाब। 

कितना चाहते हैं तुम्हें, ये क्या पूछा तूने 
ऐ पागल, गर चाहत है तो होगी बेहिसाब। 

दिल में वफ़ा, आँखों में गै़रत होना ज़रूरी है 
कुछ भी अहमियत नहीं रखता कोई ख़िताब। 

हर सू फैला देना ‘विर्क’ मुहब्बत की ख़ुशबू 
देखना फिर आ जाएगा, ख़ुद-ब-ख़ुद इंकलाब।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 17, 2018

शिकवा नहीं किया करते ज़माने से

ख़ुशी मिलेगी, ख़ुशियाँ फैलाने से 
नहीं मिलती ये किसी को रुलाने से।

जैसे हो, वैसा ही मिलेगा मुक़ाम 
शिकवा नहीं किया करते ज़माने से। 

औरों को समझा सकते हो मगर 
ख़ुद को समझाओगे किस बहाने से। 

ग़लतियाँ तो ग़लतियाँ ही होती हैं 
हो गई हों भले ही अनजाने से। 

क्या अच्छा नहीं आदतें सुधार लेना 
या कुछ मिलेगा बुरा कहलाने से। 

करने को थे ‘विर्क’ और भी काम बहुत 
तुझे फ़ुर्सत न मिली ख़ुद को बहलाने से। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 10, 2018

ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ

जिसने चाहा था कभी मुझे, अब वो नज़र ढूँढ़ता हूँ
हर महफ़िल में अपना रूठा हुआ हमसफ़र ढूँढ़ता हूँ।  

यूँ तो हर मोड़ पर मिले हैं उससे भी हसीं लोग 
मगर उसके ही जैसा शख़्स मोतबर ढूँढ़ता हूँ। 

तमाज़ते-नफ़रत से झुलस रहे हैं मेरे दिलो-जां 
इससे बचने के लिए, चाहतों का शजर ढूँढ़ता हूँ। 

झूठे दिखावों के इस दौर में खो गया है कहीं 
ऊँची इमारतों के बीच, मैं अपना घर ढूँढ़ता हूँ। 

यहाँ तो लोग मुँह फेर लेते हैं हाल पूछने पर 
हँस-हँस कर गले मिलते थे जहाँ, वो शहर ढूँढ़ता हूँ। 

सुना है ‘विर्क’ अब इंसां, इंसां नहीं रहे, फिर भी 
ज़माने के सदफ़ में, इंसानीयत का गुहर ढूँढ़ता हूँ। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अक्टूबर 03, 2018

आग की मानिंद फैलती है यहाँ ख़बर


नहीं आता है मुझको जीना, झुकाकर नज़र
गर ख़ताबार हूँ मैं, तो काट डालो मेरा सर।

मुझ पर भारी पड़ी हैं मेरी लापरवाहियाँ
तिनका-तिनका करके गया आशियाना बिखर।

अपनी रुसवाई के चर्चे तुम कैसे समेटोगे
आग की मानिंद फैलती है यहाँ ख़बर।

वक़्त को देता हूँ मौक़ा कि तोड़ डाले मुझे
सीखना चाहता हूँ, टूटकर जुड़ने का हुनर।

सीख लो अभी से चलना चिलचिलाती धूप में
ग़म की वीरान राहों पर, मिलते नहीं शजर।

बताओ विर्ककिस ढंग से जीएँ ज़िंदगी
कभी हौसला ले डूबे तो कभी ले डूबे डर।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, सितंबर 26, 2018

दर्दमंद भी होता है, दिल अगर आवारा होता है

जैसे माँ को अपना बच्चा बहुत दुलारा होता है 
ऐसे ही अपनों का दिया हर ज़ख़्म प्यारा होता है। 

ये सच है, ये यादें जलाती हैं तन-मन को मगर 
तन्हाइयों में अक्सर इनका ही सहारा होता है। 

क़त्ल करने के बाद दामन पाक नहीं रहता इसलिए 
ख़ुद कुछ नहीं करता, सितमगर का इशारा होता है। 

ये बात और है, तोड़ दिया जाता है बेरहमी से 
दर्दमंद भी होता है, दिल अगर आवारा होता है। 

दूर तक देखने वाली नज़र क़रीब देखती ही नहीं 
कई बार अपने क़दमों के पास ही किनारा होता है। 

ख़ुदा का नाम ले, खाली पेट सो जाना आसमां तले 
इस बेदर्द दुनिया में ‘विर्क’ ऐसे भी गुज़ारा होता है।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, सितंबर 19, 2018

अनोखा अंदाज़े-बयां है उनके पास

घटा से गेसू, सुर्ख़ लब, नज़र कमां है उनके पास 
देखो तो मेरी मौत का सारा सामां है उनके पास। 

ताबिशे-आफ़ताब में रुख़सारों पर मोती-सा पसीना 
तुम भी नमूना देख लो, हुस्न रक़्साँ है उनके पास। 

चाँद हैं वो आसमां के, चकोरों की उन्हें कमी नहीं 
वो हैं सबसे दूर मगर, सारा जहां है उनके पास। 

ख़ामोश लब, झुकी नज़र, न हाथ ही करें कोई इशारा 
कहें मगर बहुत कुछ, अनोखा अंदाज़े-बयां है उनके पास। 

मालूम नहीं यह, हमसफ़र बन पाएगा उनका या नहीं 
अभी तक तो मेरा यह दिल भी मेहमां है उनके पास। 

ख़ुदा सदा ही सलामत रखे ‘विर्क’ उनके शबाब को 
हम दुआओं की मै डालें, कासा-ए-जां है उनके पास। 

बुधवार, सितंबर 12, 2018

मिले हैं ज़ख़्म मुझे सौग़ात की तरह

चाहा था जिनको दिलो-जां से मैंने हयात की तरह 
उनसे ही मिले हैं ज़ख़्म मुझे सौग़ात की तरह। 

तक़दीरों और तदबीरों के रुख अब बदल चुके हैं 
वो आए थे मेरी ज़िंदगी में, वारदात की तरह। 

जब-तब मेरी ख़ुशियों को उजाड़ने चले आते हैं 
ये मेरे अश्क भी हैं, बेमौसमी बरसात की तरह। 

ताउम्र चुभते रहते हैं सीने पर नश्तर बनकर 
ग़म ज़िंदगी के होते नहीं, बीती रात की तरह। 

हाले-मुहब्बत जानना है तो सुनो, बताता हूँ 
ये है ख़्वाब में महबूब से मुलाक़ात की तरह। 

वो अगर आज़माते मुझे तो पता चलती असलियत 
ख़ालिस मिलनी थी मेरी वफ़ा ‘विर्क’ वफ़ात की तरह। 

दिलबागसिंह विर्क 
*****

बुधवार, सितंबर 05, 2018

दुनिया के सवालों का जवाब न आया

उन्हें क्या कहें गर हमारे काम उनका शबाब न आया 
ये हमारी ख़ता थी, जो हमें पहनना नकाब न आया। 

हमें तो बैचैन कर रखा है उनके ख़्यालों-ख़्वाबों ने 
ख़ुशक़िस्मत हैं वो अगर उन्हें हमारा ख़्वाब न आया। 

अब हम सज़ा-ए-तक़दीर का गिला करते भी तो कैसे 
बिन ज़ख़्मों के जो दर्द मिला, उसका हिसाब न आया। 

ख़ुद को समेट लिया है मैंने ख़ामोशियाँ ओढ़कर 
करता भी क्या, दुनिया के सवालों का जवाब न आया। 

आफ़तें सहने के हो चुके हैं इस क़द्र आदी कि अब 
बेमज़ा-सा लगे वो सफ़र, जिसमें गिर्दाब न आया। 

दौलत से बढ़कर हो जाए आदमी की अहमियत 
आज तक ‘विर्क’ ऐसा कोई इंकलाब न आया।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 29, 2018

ये कैसा हादसा हो गया

पहले ही छोटा था मैं, और छोटा हो गया 
इसीलिए मेरा ग़म मुझसे बड़ा हो गया।

किसी को पूजने की ग़लती न करो लोगो 
जिसको भी पूजा गया, वही ख़ुदा हो गया। 

तमन्ना रखे है कि मिले इसे कुछ क़ीमत 
हैरां हूँ, मेरी वफ़ा को ये क्या हो गया। 

सबको हक़ नहीं मिलता दलील देने का 
उसने जो भी कहा, वही फ़ैसला हो गया। 

उल्फ़त को सलीब मिले, नफ़रत को ताज 
इस दौर में ये कैसा हादसा हो गया ?

ज़माने को सुकूं मिलता है तो ठीक है 
चलो मान लिया, ‘विर्क’ बेवफ़ा हो गया। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 22, 2018

शिकवों से भरा महबूब का ख़त है

न दुआ, न सलाम, ये कैसा वक़्त है  
शिकवों से भरा महबूब का ख़त है ।

यह ज़िन्दगी तो जीने लायक़ नहीं 
ज़िन्दा हैं लोग, ख़ुदा की रहमत है। 

गुनाहों की मुख़ालफ़त गुनाह नहीं 
क्यों मुख़ालफ़त के लिए मुख़ालफ़त है ?

चुप हैं खोखली तहज़ीब के कारण 
वरना कब कोई किसी से सहमत है। 

लफ़्ज़ बेमा’नी हो जाते हैं जहाँ
यह ग़मे-इश्क़ तो वो लज़्ज़त है। 

तुम्हें होंगे ज़माने भर के काम मगर 
यहाँ तो ‘विर्क’ फ़ुर्सत ही फ़ुर्सत है। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 15, 2018

दुआ करें या दवा करें

समझ नहीं आता यारो, इस मर्ज़ का क्या करें 
ज़ख़्मे-मुहब्बत के लिए दुआ करें या दवा करें। 

रौशनियाँ मंज़ूर भी हों इस ज़ालिम ज़माने को 
हम तो चाहते हैं, चिराग़ाँ की मानिंद जला करें। 

क़दमों को तो आवारा होने न देंगे हम मगर 
दिल पर कुछ ज़ोर नहीं, बताओ इसका क्या करें ? 

बैठा दोगे अगर हर मोड़ पर सैयाद तो, परिंदे
मुमकिन नहीं कि आसमां की बुलंदियाँ छुआ करें। 

माना सहनी ही होगी सज़ा अपनी ग़लतियों की 
बढ़ता ही जाए दर्द यह, अब कैसे हौसला करें। 

कोई उम्मीद तो हो ‘विर्क’ पत्थर पिघलने की 
वरना किसके भरोसे और कैसे हम वफ़ा करें। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, अगस्त 08, 2018

दिल में रहने वाले कब भुलाए जाते हैं

आँखें रोती हैं और ज़ख़्म मुसकराते हैं 
जाने वाले अक्सर बहुत याद आते हैं।

दिन में हमसफ़र बन जाती हैं तन्हाइयाँ 
और रातों को हमें उनके ख़्वाब सताते हैं।

ख़ुद की परछाई में दिखे सूरत उनकी 
दिल में रहने वाले कब भुलाए जाते हैं। 

जिन पर चले थे हम कभी मुसाफ़िर बनके 
यूँ लगे जैसे हमें वो रास्ते पास बुलाते हैं। 

शिकवा करने की हिम्मत भी नहीं होती 
कभी-कभी ख़ुद को इतना बेबस पाते हैं। 

कुछ ऐसी उलझी ज़िंदगी कि समझ न आए 
जीते हैं हम ‘विर्क’ या बस दिन बिताते हैं। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जुलाई 25, 2018

उनकी मर्ज़ी फ़ैसला-ए-अदालत हो गई

बिना कोई दलील सुने मेरी वफ़ा जहालत हो गई 
क़ाज़ी थे ख़ुद, उनकी मर्ज़ी फ़ैसला-ए-अदालत हो गई। 

मेरे हाथ की लकीरों में क्या लिख दिया ख़ुदा तूने 
यूँ बेसबब परेशान रहना मेरी आदत हो गई।

मुहब्बत के साए सिरों पर नहीं रहे अब किसी के 
अपनों के पहलू में भी नफ़रतों की तमाज़त हो गई। 

वहशियत की तरफ़दारी न करें लोग तो क्या करें 
शरीफ़ों के शहर में ही जब रुसवा शराफ़त हो गई। 

ये आदमी की इबादत करे, वो आदमी से सियासत 
हार जाएगा दिल, गर इसकी दिमाग़ से बग़ावत हो गई। 

यह सारा ज़माना ही ‘विर्क’ बेवफ़ाओं का है 
वो भी बेवफ़ा हुए तो कौन-सी क़ियामत हो गई। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जुलाई 18, 2018

कोई आग दिल में जलाए रखना

लहू जिगर का इसे पिलाए रखना 
कोई आग दिल में जलाए रखना।

हर ज़ख़्म ज़माने को दिखाते नहीं 
कुछ राज़ सीने में छुपाए रखना ।

बेचैनियों से बचना है तो बस 
हर पल ख़ुद को उलझाए रखना। 

नया ज़ख़्म खाना नहीं चाहते हो तो 
पुराने ज़ख़्मों को सहलाए रखना। 

ये ख़ुशियाँ तो कल साथ छोड़ देंगी 
ग़मों को अपना हमदम बनाए रखना। 

इंसानियत की मौत पर बहाने हैं 
विर्क’ चंद अश्क तुम बचाए रखना। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जुलाई 11, 2018

बेवफ़ाई तो है इस दौर का कमाल

मुहब्बत टूटने का न कर मलाल 
बेवफ़ाई तो है इस दौर का कमाल। 

बस रौशनी की ही अहमियत है 
कौन पूछता है चिराग़ाँ का हाल। 

अपने जज़्बातों को क़ैद न करना 
आने भी दो इन पर कोई उबाल। 

जिसको देखकर ज़माना वफ़ा करे 
तू ख़ुद बनकर दिखा वो मिसाल। 

सुना देंगे ये कोई नया बहाना
न करो इन लोगों से कोई सवाल। 

इसे सोचकर तुम ख़ुश हो लिया करो 
ये ख़ुशी तो है ‘विर्क’ एक हसीं ख़्याल।

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जुलाई 04, 2018

मेरी आदतों में शुमार हो गया है, ये आँसू पीना

अब मुश्किल नहीं लगता मुझको घुट-घुटकर जीना 
मेरी आदतों में शुमार हो गया है, ये आँसू पीना ।

एक कसक और चंद हसीं यादें मेरे पास छोड़कर 
देखते-देखते हाथों से निकल गया वक़्त ज़रीना।

बुलंद हौसले कुछ नहीं करते गर कोई अपना न हो 
मौजों से दोस्ती क्या करेगी, जब दुश्मन हो सफ़ीना।

शायद इसीलिए लोग ज़माने के हैं नफ़रतपसंद 
नफ़रत तो है फ़िज़ा में और मुहब्बत है दफ़ीना ।

दौलतमंद होने के लिए तैयार हैं लहू बहाने को 
मगर कोई भी शख़्स नहीं चाहता बहाना पसीना। 

फ़र्क़ इसमें कुछ भी नहीं और बहुत ज्यादा भी है 
कोई कहे दिल पत्थर ‘विर्क’, कोई कहे दिल नगीना।

दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, जून 27, 2018

मुहब्बत तो बस मेरा मज़हब है

तेरे आने का इंतज़ार कब है 
मुहब्बत तो बस मेरा मज़हब है। 

बहते अश्कों को छुपाना कैसा 
छलकता है वही, जो लबालब है। 

कुछ तो मुझे बेवफ़ा न होना था 
कुछ याद का पहरा रोज़ो-शब है। 

कुछ-न-कुछ चलता ही रहे ज़ेहन में 
सोच का सफ़र कितना बेमतलब है ।

वस्लो-हिज्र ज़िंदगी के पहलू दो
ग़म में डूबे रहना बेसबब है ।

मंज़िल का ‘विर्क’ नामो-निशां नहीं 
ये मुहब्बत का सफ़र भी ग़ज़ब है। 

दिलबागसिंह विर्क 
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बुधवार, जून 20, 2018

इस ज़िंदगी से बड़ा एजाज़ नहीं

क्या ग़म है गर तख़्तो-ताज नहीं 
इस ज़िंदगी से बड़ा एजाज़ नहीं। 

कैसे बताऊँ मैं हाल दिल का 
ज़ुबां तो है मगर अल्फ़ाज़ नहीं।

चलना तो बस शौक है मेरा 
मैं मंज़िलों का मोहताज नहीं।

ख़ुदा सलामत रखे क़दमों को 
क्या है गर पंख नहीं, परवाज़ नहीं। 

चुपके-चुपके गुज़रता रहता है 
वक़्त करता कभी आवाज़ नहीं।

ख़ाकों में तस्वीरें बदलती रहें 
जो कल थी ‘विर्क’, वो आज नहीं। 

दिलबागसिंह विर्क 
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