बुधवार, दिसंबर 19, 2012

औरत

निवेदन - कृपया इसे कुंडलिया छंद के मापदंड पर न परखें, इसे सिर्फ षटपदीय समझें 

औरत क्यों सुरक्षित नहीं, आज भी घर बाहर 
बाहर दरिन्दे लूटते, घर में अपनों का डर ।
घर में अपनों का डर, कहीं जला न दे कोई 
दहेज़ दानव हुआ, ये कैसी किस्मत हुई ।
भ्रूण-हत्या, बलात्कार, विर्क हो रहे यहाँ नित्त 
उपर से दुःख यही , औरत को सताए औरत ।

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बुधवार, दिसंबर 05, 2012

अग़ज़ल - 48

चंद दिनों में हादसे पर हादसा हो गया
तूने छोड़ दी वफा, मैं भी बेवफा हो गया ।


दिनो-दिन हालात बद से बदतर होते चले गए
जाने क्या खता हुई, क्यों नाराज खुदा हो गया ।


कोशिश तो की होती मसले का हल तलाशने की
बित्ते भर की गलतफहमी मीलों फासिला हो गया ।


खुशी मांगी, गम मिले, मुहब्बत की, नफरत पाई
क्या सोचा था हमने और क्या से क्या हो गया ।


टूटे दिल को समझा न पाए बातों से, आखिर
साकी बना लिया साथी, घर मैकदा हो गया ।


दोस्त बनाकर देखे "विर्क "वफा निभाकर देखी
अब अपनी धुन में रहना मेरा फलसफा हो गया ।


                   दिलबाग  विर्क                        
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बुधवार, नवंबर 21, 2012

कितनी ही दीवारें

जाती व धर्म 
कितनी ही दीवारें 
खींची हमने ।
चाय-पानी से 
होता है हर काम 
कार्यलयों में ।
ईश्वर एक है 
ये कहते हैं सभी 
मानते नहीं ।
झूठा प्रचार 
होता है चुनावों में 
सभी के द्वारा ।

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मंगलवार, नवंबर 13, 2012

जलें दीप से दीप


दीवाली त्यौहार पर, जलें दीप से दीप 
सब अन्धकार दूर हों, हो रौशनी समीप ।
हो रौशनी समीप, उमंग जगे हर घर में 
करें तमस का नाश, हो उजास विश्व भर में ।
कहे विर्क कविराय, भरे खुशियों की थाली 
फैले हर्षोल्लास , मनाएं जब दीवाली ।

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गुरुवार, नवंबर 01, 2012

अगजल - 47

जिन्दगी में फैली है कैसी बेनूरी ।
न सुबह सुहानी, न शाम सिन्दूरी ।
चाँद के चेहरे पर दाग क्यों है ?
क्यों है दुनिया की हर शै अधूरी ?

माना ताकतवर है तू बहुत मगर 
ठीक नहीं होती इतनी मगरूरी ।

जब भी पाओगे भीतर मिलेगी 
कहाँ ढूँढो खुशियों की कस्तूरी ।

तुझसे शिकवा करना खता होगी 
इंसान के हिस्से आई है मजबूरी ।

दुनिया सिमट गई मुट्ठी में मगर 
दिलों में ' विर्क ' बढती जाए दूरी ।

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बुधवार, अक्टूबर 24, 2012

रावण ( तांका )

बुत्त जलता 
दशहरे के दिन 
रावण नहीं 
रावण तो जिन्दा है 
हमारे ही भीतर ।
जिन्दा रखते 
भीतर का रावण 
और बाहर 
जलाते हैं पुतले 
धर भेष राम का 

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गुरुवार, अक्टूबर 18, 2012

बचपन

ये बचपन मासूम - सा , है ईश्वर का रूप 
प्यारी-सी मुस्कान है, ज्यों सर्दी की धूप ।
ज्यों सर्दी की धूप, सुहाती हमको हरपल 
लेती है मन मोह, सदा ही चितवन चंचल ।
लेकर इनको गोद, ख़ुशी से झूम उठे मन 
यही दुआ है विर्क , रहे हंसता ये बचपन ।

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बुधवार, अक्टूबर 10, 2012

अग़ज़ल - 46

ये दर्द मेरे दोस्तों की मेहरबानी का असर है 
अपनों ने रची हैं जो साजिशें, उनकी हमें खबर है ।

इसका नतीजा क्या होगा, यह तुम भी जानते हो 
पत्थर हैं उनके हाथ में, और मेरा कांच का घर है ।

जो बहुत शोर मचाया करते थे दोस्ती का अक्सर 
जब दुश्मनों को गिना, पाया उनका नाम भी उधर है ।

जिसके आसरे का था गरूर हमें, वो धोखा दे गया 
बरसात का मौसम शुरू होते ही, गया आशियाँ बिखर है।

मेरे मरे हुए सब अरमानों को तुम दफना देना कहीं 
मुझे अब फिर से इन सबके जिन्दा हो जाने का डर है ।

मैं समेट रहा हूँ विर्क खुद को अपने आगोश में 
महफिल की बात न करो, तन्हाई मेरा मुकद्दर है ।


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शनिवार, सितंबर 29, 2012

बेवफाई ( हाइकु )

बेटा चाहिए 
बेटी का है आज भी 
दर्जा दोयम ।
बस्तों का बोझ 
ढो रहा बचपन 
ये कैसी शिक्षा ?
बेवफाई तो 
आदत आदमी की 
हर क्षेत्र में ।
झूठा प्रचार 
होता है चुनावों में 
सबके द्वारा ।

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शुक्रवार, सितंबर 14, 2012

हिंदी की पुकार ( कविता )

मैं हिंदी हूँ 
हिन्दुस्तान की बेटी हूँ 
न देखो मुझे 
किसी जाति से जोड़कर 
किसी सम्प्रदाय से जोड़कर 
किसी क्षेत्र से जोड़कर 
कश्मीर से कन्याकुमारी तक 
चाहती हूँ प्यार सबका 
बांटती हूँ प्यार सबको 
पिरोती हूँ एक सूत्र में 
पंजाबी, मराठी, गुजराती, बंगाली 
सभी भाषाएँ हैं भगिनी मेरी 
चल सकती हूँ मैं साथ सबके
ओ हिंद वासियों 
सुनो पुकार मेरी  
न करो विरोध मेरा 
किसी भाषा को लेकर 
छोडो संकीर्णता 
तोड़ो भाषाई बंधन 
जुडो़ मुझसे 
मुझसे जुड़कर जुडो़गे तुम 
इस देश से 
खुद से 
मैं हिंदी हूँ 
हिन्दुस्तान की बेटी हूँ ।

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रविवार, सितंबर 09, 2012

अगजल - 45

          प्यार प्यार न रहेगा, सनम छूट जाएगा 
          ' मैं ' को पकड़ोगे तो ' हम ' छूट जाएगा ।

          अगर यूं ही बढ़ते गए दिलों के फासले 
          तो एक दिन देखना, तकुल्लम छूट जाएगा ।

          जिन्दा रहना सजा होगा, अगर हाथ से 
          इंसानियत का परचम  छूट जाएगा ।

          ये रास्ते हैं इनकी अहमियत कुछ नहीं 
          खुदा मिला तो दैरो-हरम छूट जाएगा ।

          न तंगदिल बनो लोगो, इस तंगदिली से 
          प्यार का, खुशियों का मौसम छूट जाएगा ।

          ख़ुशी के पीछे दौड़ना छोड़ दो विर्क 
          फिर देखना, पीछे हर गम छूट जाएगा ।

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तकुल्लम  ---- वार्तालाप 
दैरो - हरम ---- काबा और बुतखाना  

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मंगलवार, सितंबर 04, 2012

रख लो पद का मान

गुरु में गुरुता है नहीं , खोया है सम्मान 
शक की सूई घूमती , अब ना रहा महान ।
अब ना रहा महान , समाज बना है दुश्मन 
दिखते सबको दोष , उठाता उँगली हर जन ।
खुद में करो सुधार , प्रयास आज से हों शुरू 
रख लो पद का मान, दिखाओ तुम बनकर गुरु ।

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रविवार, अगस्त 26, 2012

स्वार्थी दुनिया ( हाइकु )

दिखावा बढ़ा 
धार्मिकता गायब
ये किस धर्म ?
तोड़ लेती है
टहनियों से फूल 
स्वार्थी दुनिया ।
गांधारी होना 
महानता कम है
 मूर्खता ज्यादा ।

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शनिवार, अगस्त 18, 2012

अगज़ल - 44

      अपनी हस्ती को गम के चंगुल से आजाद करने का 
      काश ! हम सीख लेते हुनर खुद को शाद करने का ।


      अंजाम की बात तो बहारों पर मुनस्सर है लेकिन 
      इरादा तो हो वीरान चमन को आबाद करने का ।

      इन्हें कुछ भी मतलब नहीं होता किन्हीं मुद्दों से 
      लोगों को तो बस मौका चाहिए फसाद करने का ।

      मुमकिन है हार के बाद हताशा हो जाए हावी 
      मगर हौंसला रखना , खुदा से फरियाद करने का ।

      बदलते मौसमों का इस पर कुछ असर नहीं होता 
      ढूंढ ही लेता है दिल बहाना , तुझे याद करने का ।

       ये तो हमारी ही खताएं थी विर्क जो भारी पड़ी 
       जमाने में कहाँ दम था हमें बर्बाद करने का ।

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रविवार, अगस्त 12, 2012

प्यार ( कविता )

तुझे पा लूं 
बाँहों में भरकर चूम लूं 
है यह तो वासना ।

प्यार कब चाहे 
कुछ पाना 
कुछ चाहना ।

जब तक तडप है 
प्यार जिन्दा है 
जब पा लिया 
प्यार मुरझा गया
 वासना में डूबकर ।

कुछ पाने की 
फ़िक्र क्यों है 
तडप का मजा लो 
यही तडप तो नाम है
प्यार का ।

दिलबाग विर्क 
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शुक्रवार, अगस्त 03, 2012

कैसी आजादी ? ( हाइकु )

इस युग में 
बढती नफरत
घटता प्यार ।

न गम स्थायी  
न ख़ुशी ही है स्थायी 
सब नश्वर  ।

चंद मिसालें 
क्या हो गई इससे 
नारी स्वतंत्र ।

आज भी वही 
लाठी वाले की भैंस 
कैसी आजादी ?

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गुरुवार, जुलाई 26, 2012

अग़ज़ल - 43

              जिन्दगी को पिरोना चाहता हूँ ग़ज़ल में 
              भटक रहा हूँ मैं , इस तलाशे-साहिल में ।


              कामयाब होकर लोग खुद बदल जाते हैं 
              वरना कब नशा होता है मंजिल में ।


              अगर पत्थर दिल है वो तो भी क्या है 
              दिल जैसा कुछ तो होगा उसके दिल में ।


              शायद मिले मुझे मौका कुछ कहने का 
              अभी तक जले है शमां उनकी महफिल में ।


              आदमियों में कातिलों को क्या ढूंढना 
              आदमी ढूंढता हूँ मैं हर कातिल में ।


              मुहब्बत ने विर्क ये हुनर सिखा दिया 
              मजा आने लगा है अब हर मुश्किल में ।


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रविवार, जुलाई 15, 2012

गाँव (कविता )

         मेरा गाँव 
         जैसा मेरे बचपन के दिनों में था 
         वैसा अब नहीं रहा 
         वह खो गया है कहीं 
         आज के गाँव में ।


         जो पुराना गाँव था 
         दो हिस्से थे उसके 
         एक हिस्से में थे 
         रिहायशी घर 
         दूसरे हिस्से में थी 
         खेती की जमीन ।
         आज ये दोनों हिस्से 
         मिल चुके हैं इस कद्र 
         कि अब पता नहीं चलता 
         गाँव खेतों में आ बसा है 
         या फिर 
         खेत गाँव में आ घुसे हैं ।


         पहले गाँव के जोहड़ में 
         कश्तियों-सी घूमती थी भैंसे 
         और जोहड़ किनारे लगे 
         पीपल के पेड़ के नीचे 
         जमती थी महफ़िल 
         चलते थे ताश के दौर 
         तब मुश्किल से ढूंढ पाते थे 
         बैठने को जगह 
         लेकिन अब वीरानी है वहां पर 
         सूख चूका है जोहड़ 
         नहीं जमती 
         पीपल के नीचे महफ़िल 
         गाँव के नजारे 
         लुप्त हो चुके हैं गाँव से ।


         सिर्फ गाँव ही नहीं बदला 
         गाँव के साथ बदले हैं 
         गाँव के लोग भी 
         पहले-सा भाईचारा    
         पहले-सा प्रेम भाव 
         खो गया है कहीं 
         लड़ाई        
         टांग-खिचाई 
         अब हिस्सा बन चुके हैं गाँव का ।


         मेरे बचपन का गाँव 
         मेरे बचपन की तरह 
         निकल चुका है हाथ से 
         वह अब सिर्फ यादों में है 
         उसे हकीकत बनाने की जरूरत 
         नहीं महसूस होती किसी को 
         लेकिन 
         शहर-सा बने गाँव पर 
         आंसू बहाता है 
         उदास खड़ा पीपल का पेड़ ।


                   ********

मंगलवार, जुलाई 10, 2012

रखो शिष्टता ( हाइकु )

भाषा जोडती 
लोगों को आपस में 
तोडती नहीं ।

रखो शिष्टता 
चाहे समर्थन हो 
चाहे विरोध ।

सच के लिए 
नहीं बोलोगे तुम 
पछताओगे ।

**************

मंगलवार, जुलाई 03, 2012

गरीबी


'अरे कल्लू मजदूरी पर चलेगा' - मैंने कल्लू से पूछा, जो अपने झोंपड़े के आगे अलाव पर तप रहा था. वैसे आज ठंड कोई ज्यादा नहीं थी. हाँ, सुब्ह-सुब्ह जो ठंडक फरवरी के महीने में होती है, वह जरूर थी. कल्लू ने मेरी ओर गौर से देखा और कहा - ' अभी बताते हैं साहिब ' और इतना कहकर वह खड़ा हो गया और झोंपड़े के दरवाजे पर जाकर आवाज दी - ' अरे मुनिया की माँ, घर में राशन है या ... ?' उसके प्रश्न के उत्तर में अंदर से आवाज आई - ' आज के दिन का तो है. '
                यह सुनते ही कल्लू, जो मुझे लग रहा था कि वह काम पर चलने को तैयार है, पुन: अलाव के पास आकर बैठते हुए बोला - 'नहीं, साहिब आज हम नहीं जाएगा.'
'क्यों ?'
क्यों क्या ? बस नहीं जाएगा. ठण्ड के दिन में काम करना क्या जरूरी है ?'
' अगर घर में राशन न होता तो ?'
' तब और बात होती, अब आज के दिन का तो है न. 
उसके इस उत्तर को सुनकर मैं नए मजदूर की तलाश में चल पड़ा.  


                        *************

गुरुवार, जून 21, 2012

अग़ज़ल - 42

  इबादत करना चाहता हूँ , मुझे कोई खुदा चाहिए 
  लुटा सकूं जिस पर अपनी वफा, ऐसा बा-वफा चाहिए ।


  ता उम्र चलने की तमन्ना है और चलने के लिए 
  कंटीला-पथरीला जैसा भी हो बस रास्ता चाहिए ।


  हंसने का हुनर हावी होगा हर ला-इलाज मर्ज पर 
  वो आजमाए इसे , जिसे दर्दे-जिगर की दवा चाहिए ।


  तंगदिली के बादल छाए हैं मुहब्बत के आसमान पर 
  उडा ले जाए जो वहमों-रस्मों को वो हवा चाहिए ।


  खामोशियों का ओढकर नकाब बोलना सीख रहा हूँ 
  जो दिल को छू लेकर जाकर ऐसी कोई सदा चाहिए ।


  माना कि बुरा हूँ मैं मगर मुहब्बत से खाली नहीं 
  यकीं दिला सकता हूँ बस मौका एक मरतबा चाहिए ।


  कुछ नहीं मिलता दौलत- शौहरत के पीछे दौडकर 
  गर विर्क सकूं मिले दिल को तो और भला क्या चाहिए ।
    
                         ***************


    

शनिवार, जून 16, 2012

झुलसे हुए जज्बात ( कविता )

इधर 
जेठ की दोपहरी में 
लू 
झुलसा रही है तन को 
उधर मुल्क में 
आदमी की संकीर्णता से 
फैली आग में 
झुलस रहे हैं जज्बात ।

बारिशों का मौसम आते ही 
बंद हो जाएगी 
लू चलनी 
खुशगवार हो जाएगा मौसम 
राहत मिल जाएगी तन को 
लेकिन 
झुलसे हुए जज्बातों पर 
नहीं लग पाएगी कोई मरहम 
दिलों में पड़ी दरारें 
भर न पाएंगी 
किसी भी तरह ।

****************

रविवार, जून 10, 2012

बांसुरी हम ( हाइकु )

विकल्प कहाँ 
जनता के सामने 
राजनीति में ।
बांसुरी हम 
गूँज रहा है नाद 
कोई अज्ञात ।
पालतू नहीं 
दहशतगर्द तो 
जंगली कुत्ते ।
खुद को छोड़ 
जीए औरों के लिए 
वही जीवन ।

***************

रविवार, जून 03, 2012

अगज़ल - 41

               इतना बेगानापन दिखाओगे, सोचा न था 
           मेरी हार का जश्न मनाओगे, सोचा न था ।
           तड़पने, आहें भरने का माद्दा तो था मगर 
           तुम खून के आंसू रुलाओगे, सोचा न था 

           ऐतबार के बिना कब कटे जिन्दगी का सफर 
           हर मोड़ पर हमें आजमाओगे, सोचा न था ।

           सोचा था, वा'दे वफा के हैं पत्थर पर लकीर 
           इन्हें रेत की मानिंद उड़ाओगे, सोचा न था ।

           दुश्मन न थे, हम तो आपकी ख़ुशी से खुश थे 
           राजे-दिल हमसे छुपाओगे , सोचा न था ।

           बीता हुआ हर लम्हा निकाल दिया जिन्दगी से
           हमें विर्क इस कद्र भुलाओगे , सोचा न था । 

                          *************** 

शनिवार, मई 26, 2012

संवाद करो ( हाइकु )

क्षेत्र का राग 
अलापते अक्सर 
कैसे ये नेता ?

सबका गम 
महसूस करो तो 
अपना लगे ।

संवाद करो 
असहमति पर 
विवाद नहीं ।

****************

रविवार, मई 20, 2012

अग़ज़ल - 40

          उदास मत होना इतना कि दिल धडकना छोड़ दे 
      क्या कीमत है फूल की गर वो महकना छोड़ दे ।

     माना कि बहुत जालिम है सैयाद यहाँ का मगर 
     इतनी बेबसी भी क्या कि बुलबुल चहकना छोड़ दे ।

     हर किसी के नसीब में यहाँ चाँद नहीं होता 
     फिर गिला कैसा, नसीब की बात कहना छोड़ दे ।

     लम्बा सफर है जिन्दगी का, हमसफर मिलते रहेंगे 
     किसी के इन्तजार में, हर मोड़ पर रुकना छोड़ दे ।

     जो मझधार में छोड़ गए वो दोस्त ही कब थे 
     ऐसे लोगों की याद में तू दहकना छोड़ दे ।


     सिर्फ आंसू बहाना ही मकसद नहीं है जीने का 
     दिल का कहना मानकर विर्क बहकना छोड़ दे ।

                      *************                    

शनिवार, मई 12, 2012

जीवहत्या क्यों ?( हाइकु )

कस्तूरी होती 
अपने ही भीतर 
ढूंढें बाहर ।
जीवन देना 
जब वश में नहीं 
जीवहत्या क्यों ?

मेहनत को 
मानते कर्मशील 
अन्य  भाग्य को ।

अहमियत 
हार-जीत की नहीं 
कोशिश की है ।

****************

बुधवार, मई 02, 2012

जिंदगी के आघात ( कविता )

चुप रहूँ या कुछ कहूं 
दुविधा सदा रही है सामने ।

चुप रहने का अर्थ हैं -
अन्याय को होते देखना 
जो खामोश सहमति ही है 
अन्याय की ।

कुछ कहने का अर्थ है -
मुसीबतें मोल लेना 
अपना चैन खोना ।

शायद इसीलिए 
कहा जाता है जिन्दगी को 
दो धारी तलवार 
जो जख्म देती है 
आहत करती है ।

दुर्भाग्यवश 
हर आदमी 
जख्मी है 
आहत है 
इस जिन्दगी के 
आघातों से ।

********************

मंगलवार, अप्रैल 24, 2012

अगजल - 39

छूटता जा रहा है हंसते - खेलते जीने का फलसफा 
सियासत की छोडो, अब मोहब्बत में भी मिलता है दगा ।

दस्तूर इस जमाने के देखकर बड़ा हैरान हूँ मैं
पास-पास रहने वाले लोगों में है कितना फासिला ।
कैसे दिल को समझाऊं , शातिर था वो दिलो-दिमाग से
चेहरा जिसका मासूम था , लगता था जो बड़ा भला ।

चलो एक और आदमी की असलियत से हुए वाकिफ
ये कहकर समझाया दिल को, जब मिला कोई बेवफा ।

प्यार खुशियाँ देगा , ये वहम तो कब का उड़ चुका है
अब देखना ये है , मैं कब तक निभाता रहूँगा वफा ।

बड़ा गम उठाया है मैंने विर्क हकीकत बयाँ करके   
क्या मिला बोलकर, अब तो सोचता हूँ क्यों न चुप रहा ।

********************

शुक्रवार, अप्रैल 20, 2012

सहारा तिनके-सा ( हाइकु )

बनना तुम
सहारा तिनके-सा
धूप सर्दी की ।
जवाब मांगो 
हमारे वोटों से ही
मिली है सत्ता ।
सोचते नहीं
लकीर को पीटते
लोग अक्सर ।
बमों से कभी
फैसले नहीं होते
विनाश होता ।

*********************
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