बुधवार, दिसंबर 28, 2016
बुधवार, नवंबर 23, 2016
बस यूं ही
चल यूं ही कुछ कर
समय व्यतीत करने के लिए
या फिर समय खराब करने के लिए
आखिर सब यही तो कर रहे हैं
कोई प्रयोग के नाम पर
कोई विचारधारा के नाम पर
और कुछ नहीं कर सकता तो
कलम घसीट
लोग राजनेता बने हुए हैं
समाजसेवक बने हुए हैं
धर्म गुरु बने हुए हैं
इन यूं ही के कामों से
क्या पता तू भी बन जाए कवि कभी ।
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, नवंबर 16, 2016
दिल की खबर रखना
भले ही तुम बरसों तक जारी अपना सफ़र रखना
पीछे इंतज़ार है तुम्हारा, थोडा ख्याल इधर रखना |
कभी दुश्मन बनकर लूटें, कभी दोस्त बनकर लूटें
बड़े शातिर हैं ये लोग, इन लोगों पर नज़र रखना |
तुम्हारे पहलू में है भले मगर ये तुम्हारा न रहेगा
हसीनों की महफिल में हो, दिल की खबर रखना |
नफ़रत के दौर में माना मुहब्बत कुछ नहीं मगर
आँखों के सामने सदा मुहब्बत के मंजर रखना |
सुना है बहुत ताकतवर हो, कोई नहीं तुम-सा
हो सके तो दिल में ख़ुदा का थोड़ा डर रखना |
भले हर रोज छू लिया करो शोहरतों के नए शिखर
थक हार कर लौटना होगा, ' विर्क ' अपना घर रखना |
दिलबागसिंह विर्क
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सांझा संग्रह - 100 क़दम
सम्पादक - अंजू चौधरी, मुकेश सिन्हा
बुधवार, नवंबर 09, 2016
दिल जलता है
बेबस होकर रोने के सिवा क्या मिलता है
हाले-दुनिया न सुना मुझको, दिल जलता है ।
देखना है तो बस इतना कि कब फटेगा ये
यूँ तो हर पल बगावत का लावा उबलता है ।
हालात बद से बदतर हुए हैं तो बस इसलिए
चलने देते हैं हम लोग, जो कुछ चलता है ।
बच्चों-सा मासूम है ये, हम-सा शातिर नहीं
मचलने भी दो इसको अगर दिल मचलता है ।
सितमगर की हुकूमत कब तक चलती रहेगी
आखिर वक़्त कभी-न-कभी रुख बदलता है ।
उसका शबाब कितना भी लाजवाब क्यों न हो
ये तो मुअय्यन है ' विर्क ' हर दिन ढलता है ।
दिलबागसिंह विर्क
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काव्य संग्रह - 100 क़दम
संपादक - मुकेश सिन्हा, अंजू चौधरी
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बुधवार, अक्टूबर 26, 2016
कुछ हम बुरे, कुछ तुम बुरे
कुछ हम बुरे, कुछ तुम बुरे, कुछ यह जमाना बुरा
शायद इसीलिए है यहाँ पर दिल लगाना बुरा |
दुश्मनों की फेहरिस्त में लिख लिया मेरा नाम
इसलिए अब लगे उनको मेरा मुस्कराना बुरा |
तमाशबीन तो होते हैं लोग, गमख्वार नहीं
हर किसी को अपना जख्मी दिल दुखाना बुरा |
कहीं-न-कहीं उलझाए रखना है काम इसका
न इसकी मानना, है ये दिल दीवाना बुरा |
उम्मीदों का टूटना दिल से सहा नहीं जाता
दोस्तों की दोस्ती को बार-बार आजमाना बुरा |
मेरे कहने से कब चीजों की अहमियत बदले
मैं तो कहता हूँ ' विर्क ' मय बुरी, मैखाना बुरा |
दिलबागसिंह विर्क
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साँझा संग्रह - 100 क़दम
संपादक - अंजू चौधरी, मुकेश सिन्हा
बुधवार, अक्टूबर 19, 2016
बुधवार, अक्टूबर 12, 2016
मैं इस बात को लेकर शर्मिंदा हूँ
लोग हों-न-हों, मैं इस बात को लेकर शर्मिंदा हूँ
हैवानियत है जहाँ, मैं उस दौर का वाशिंदा हूँ |
जमाने को बदल सकूं, ऐसी मेरी हैसियत नहीं
खुद को बदलून कैसे, अपने उसूलों में बंधा हूँ |
बस उसका वजूद ही दुश्मन है तीरगी का वरना
आफताब कब कहे किसी को कि मैं ताबिंदा हूँ |
खुदा ने तो लिखी थी परवाज मेरी किस्मत में
वक्त ने काट दिए पर जिसके, मैं वो परिंदा हूँ |
बेबसी के दौर में जीने की तमन्ना तो नहीं मगर
बुजदिली है ख़ुदकुशी ' विर्क ' बस इसलिए ज़िंदा हूँ |
दिलबागसिंह विर्क
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सांझा-संग्रह - 100 क़दम
संपादक - अंजू चौधरी, मुकेश सिन्हा
बुधवार, अक्टूबर 05, 2016
खुदा है तो खुदा बन
हमारी दुआओं का हो नहीं रहा कुछ असर
खुदा है तो खुदा बन, क्यों बनता है पत्थर |
महौले-दहशत कब तक रहेगा जिंदगी में
बड़ा बेचैन हैं दिल, बड़ी परेशान है नजर |
देकर सब कुछ, अब छीन रही खुशियाँ
ऐ तकदीर, तू मुझसे ऐसा मजाक न कर |
यहाँ मैं रहूँ वो जगह सराए से कम नहीं
कीमत वसूल रही है दौलत, छीनकर घर |
दौरे-दहशत में अब सूझता कुछ भी नहीं
किस राह चलूँ मैं, कौन-सा है मेरा सफर |
बेबसी का अहसास तो ' विर्क ' उनसे पूछो
समेटते-समेटते गया जिनका सब कुछ बिखर |
दिलबाग सिंह विर्क
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सांझा संग्रह - 100 कदम
प्रकाशक - हिन्द युग्म
संपादक - अंजू चौधरी और मुकेश सिन्हा
बुधवार, सितंबर 14, 2016
बुधवार, सितंबर 07, 2016
बुधवार, अगस्त 24, 2016
रंग
गुलाबी, उनाबी
रंग ही तो रंगीन करते हैं
जीवन को
चेहरे पर लगे रंगों से
खिल उठते हैं चेहरे
मगर चेहरों पर
रंग सिर्फ़ लगाया नहीं जाता
चेहरे खुद भी रंग बदलते हैं
चेहरों का रंग बदलना
बेरंग करता है रिश्तों को
रंग बदलते चेहरों के बीच
रिश्तों का बेरंग हो जाना
सबसे बड़ी त्रासदी है
इस युग की |
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, जुलाई 27, 2016
उलझन
आँखों की भाषा
पढाई नहीं जाती कहीं भी
मुस्कराहटों के अर्थ
मिलते नहीं किसी शब्दकोश में
तुम्हारी आँखें
तुम्हारी मुस्कराहटें
सीधा-सादा गद्य कब कहती हैं
कभी वे
मुझे इजाजत देती लगती हैं
प्यार के इजहार का
कभी वे
लगती हैं मेरा मुँह चिढ़ाती हुई
क्या समझ सकोगे मेरी उलझन
क्योंकि एक ही अर्थ नहीं होता
आँखों की कूट भाषा का
कविता-सी मुस्कान का
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, जुलाई 13, 2016
बुधवार, जुलाई 06, 2016
बुधवार, जून 29, 2016
रिश्तों पर बर्फ
अहम् की पट्टी
स्वार्थ के फाहे रखकर
जब बाँध लेते हैं हम
सोच की आँखों पर
तब जम जाती है
रिश्तों पर बर्फ
दम घुट जाता है रिश्तों का
दिल में गर्माहट रखकर
बढाते हैं जब हाथ
मिट जाती हैं सब दूरियां
पिघल जाती है बर्फ
जीवित हो उठते हैं रिश्ते
प्यार की संजीविनी पाकर
रिश्तों पर बर्फ
जमने और पिघलने का
कोई मौसम नहीं होता
अविश्वास, अहम्, स्वार्थ
जमा देते हैं बर्फ
विश्वास, वफा, प्यार
पिघला देते हैं इसे |
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बुधवार, जून 15, 2016
मंगलवार, मई 24, 2016
सुखों के पैवंद
अच्छा नहीं लगता सुख
दुःख के बिना
क्योंकि एकरसता नीरस होती है
दुःख के बिना
क्योंकि एकरसता नीरस होती है
हर सुनी बात सच्ची हो
ये जरूरी तो नहीं
भले ही वो बात
निचोड़ हो
दुनिया भर के अनुभवों का
दुखों से तार-तार हुए
ज़िन्दगी के वस्त्रों पर
कब सुंदर लगते हैं
सुख के पैवंद
वे तो बस मुँह चिढ़ाते हैं
बेनूर ज़िन्दगी का ।
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, मई 18, 2016
वादा
क़समें खाकर
खून के ख़त लिखकर
किए गए हों जो वादे
सिर्फ़ वही वादे नहीं होते
ख़ामोशी के साथ
आँखों ही आँखों में
होते हैं बहुत से वादे
निभाने वाले
निभाते हैं अक्सर
आँखों से किए वायदे
मुकरने वाले मुकर जाते हैं
खून के ख़त लिखकर
अहमियत नहीं रखती
न कोई क़सम
न खून की स्याही
महत्त्वपूर्ण होती है
दिल की प्रतिबद्धता |
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, मई 11, 2016
कैसे कोई खाली हाथ घर जाए
दुआ करना सदा तुम, दूर तक इसका असर जाए
इसी से क्या पता बदहाल दुनिया कुछ संवर जाए |
वफाओं के बिना कैसे उगें फसलें मुहब्बत की
दिखे वीरानगी यारो, जहां तक भी नज़र जाए ।
न अंदर की ख़बर है, सब करें बस बात बाहर की
लड़ा हालात से जो, जीत उसको ही मिली हर बार
डराती ही रहे दुनिया उसे, जो शख्स डर जाए ।
बड़ा लम्बा सफ़र है ज़िन्दगी का, कब कटे यूं ही
मुहब्बत की ख़ुमारी चार ही दिन में उतर जाए ।
बड़ी उम्मीद से जब राह तकती हों कई आँखें
बताओ 'विर्क' कैसे कोई खाली हाथ घर जाए ।
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, मई 04, 2016
इश्क़ के मा'ने
फूलों में तुझे हंसते हुए पाता हूँ
तू दिखता है
परिंदों में उड़ता हुआ
जहन में चलते हैं दिन भर
ख्याल तेरे
रात को तू
डेरा जमाता है ख़्वाबों में
इन दिनों
जर्रा-जर्रा खूबसूरत लगे मुझे
तेरी खुशबू महसूस हो फिजा में
मुझे मालूम नहीं इश्क़ के मा'ने
बस तुझे सोचना अच्छा लगता है ।
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बुधवार, अप्रैल 27, 2016
मध्यम मार्ग
घर में
पत्नी और बच्चों की फरमाइशें
दफ्तर में
बॉस के आदेश
इन्हीं की पालना करते रहना ही
क्या नियति है आदमी की
कोल्हू के बैल की तरह
एक धुरी पर घूमते रहना ही
क्या मकसद है जीवन का
अगर नहीं तो
क्या उचित है
आवारा सांड बन
जगह - जगह मुँह मारना
क्या कोई मध्यम मार्ग भी होता है
कोल्हू के बैल
और आवारा सांड के बीच
तलाश जारी है
मध्यम मार्ग की
लेकिन नियंत्रण कहाँ है
बुलेट ट्रेन - सी दौड़ती उम्र पर |
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सोमवार, अप्रैल 18, 2016
क्या मैं गुनहगार हूँ ?
“ कुछ नहीं किया ? अरे तूने तो सरेआम कत्ल किया है नैतिकता का | ”
‘ लेकिन वो मेरी मजबूरी थी | ’
“ मजबूरी ? कैसी मजबूरी ? ”
‘ वहां नैतिकता का पालन करना मेरे चरित्र और करियर दोनों के लिए घातक सिद्ध हो सकता था | ’
“ तुम्हारे चरित्र और करियर के लिए ? ”
‘ हाँ, मेरे चरित्र और करियर के लिए | ’
“ वो कैसे ? ”
‘ यह समाज भले ही पुरुष प्रधान कहलाता हो लेकिन आज के दौर में पुरुषों को औरतों से बचकर रहना पड़ता है | जब हालात इतने नाजुक हों तब मेरा उस लड़की के पास रुकना, उसे लिफ्ट देना खतरे से खाली कैसे था ? ’
“ खतरा ! अरे वह लडकी तो खुद मुसीबत में फँसी हुई थी, भला उससे तुम्हें क्या खतरा हो सकता था , वह बेचारी तुम्हारा क्या बिगाड़ सकती थी ? ”
‘ क्या भरोसा है कि वह सचमुच में मुसीबत में फँसी हुई थी या ... ’
“ वह खुद कह तो रही थी | ”
‘ उसके कहने से क्या होता है | ’
“ क्यों ? क्या उस पर विश्वास नहीं किया जा सकता ? ”
‘ विश्वास ! जिसे हम जानते ही नहीं उस पर विश्वास कैसा | ’
“ उसका चेहरा भी तो बता रहा था कि वह वास्तव में ही मजबूर है | ”
‘ चेहरा ! नकाबों के दौर में चेहरे पढ़ने की गलती तो कोई मनोवैज्ञानिक भी नहीं कर सकता फिर भला मैं कैसे विश्वास करता और क्यों करता ? ’
“ चलो माना कि वह मजबूर नहीं थी फिर भी उसे लिफ्ट देने में हर्ज़ क्या था ? ”
‘ हर्ज़ क्यों नहीं था ? मैं भी जवान था, वह भी जवान थी और जिस जगह वह मुझे मिली थी वह एक सुनसान जगह थी, ऐसे में मेरा उसके पास एक पल भी रुकना मुझे बदनाम कर सकता था | ’
“ तुम्हारे कहने का मतलब है कि जवान लडकियाँ इतनी बुरी होती हैं कि उनके पास रुकना मात्र ही बदनामी का कारण है | ”
‘ नहीं, मैं यह नहीं कह रहा हूँ मगर उस अनजान लडकी के पास रुकना बदनामी का कारण जरूर बन सकता था | ’
“ क्यों , ऐसा क्या था उस लडकी में जिसके कारण तुम डरे हुए हो ? ”
‘ क्या था, यह तो मैं नहीं जानता लेकिन आजकल के माहौल को देखते हुए यह संभावना जरूर थी कि वह लुटेरों के किसी गिरोह की सदस्य हो या फिर खुद ही आवारा किस्म की लडकी हो जो पहले मासूमियत दिखाकर लोगों की सहानुभूति प्राप्त करती हो और बाद में ब्लैकमेल करके धन ऐंठती हो | ’
“ क्या ऐसा भी हो सकता है ? ”
‘ हो सकता है नहीं बल्कि होता है और अनेक लोग ऐसी खूबसूरत और चालाक औरतों के जाल में फँसकर अपने पैसे, कपड़े, जूते आदि जो भी पास होता है वह सब गंवा बैठते हैं और अगर कोई विरोध करता है तो यह लडकियाँ सती-सावित्री का ढोंग करके समाज की ऐसी सहानुभूति पाती हैं कि राम-सा पुरुष रावण या दुशासन सिद्ध हो जाता है | ’
“ यदि ऐसा होता है तो तुमने ठीक किया, लेकिन ..... ”
‘ लेकिन-वेकिन छोडो, यहाँ पर ऐसी घटनाएं रोज ही होती हैं | ऐसी बातों पर ज्यादा सोचना ठीक नहीं | ’
इन तर्कों के सहारे मैंने अपने दिल को चुप कराया | यह मेरा दिल ही था जो मुझे नैतिकता का पाठ पढ़ा रहा था कि मुझे अनजाने रास्ते पर मिली अनजान लड़की की मदद करनी चाहिए थी | उस लड़की की आँखों में आँसू थे | कपड़े पसीने से तर-ब-तर थे | वह हाँफ भी रही थी | लगता था कि वह काफी दूर से भागकर आई थी | सड़क के बीचो-बीच आकर उसने मुझे गाड़ी रोकने के लिए विवश कर दिया था और बड़ी मिन्नतें करते हुए कहा था – ‘ मुझे शहर तक ले जाएं क्योंकि मेरे पीछे कुछ गुंडे पड़े हुए हैं जो मेरी इज्जत लूटना चाहते हैं | मैं छुपते-छुपाते बड़ी मुश्किल से यहाँ तक आई हूँ | अगर आप मुझे शहर तक पहुँचा दें तो मैं बच जाऊँगी | ’
उसकी दशा देखकर, उसकी बातों से पसीजकर मेरा दिल मेरे दिमाग से बगावत कर बैठा था | वह मुझे बार-बार कह रहा था कि इस बेचारी मजबूर लड़की पर तरस खाओ, इसकी मदद करो, लेकिन दिमाग इससे सहमत नहीं था और मैंने दिमाग की बात मानते हुए उस हाथ जोड़े खड़ी लड़की को बड़ी मुश्किल से दूर धकलते हुए गाड़ी चला दी | मेरा दिल मुझे बार-बार कोस रहा था कि तूने गलत किया है, तूने नैतिकता का कत्ल किया है, लेकिन मेरा दिमाग उसकी बात सुनने को तैयार नहीं था बस दिल के कहने पर मैंने एक बार शीशे से पीछे देखा जरूर, वह रोती-बिलखती हुई हताश होकर वहीं बैठ गई थी | दिल ने मुझे फिर कहा अब भी अपनी गलती सुधार ले और लौटकर उसकी मदद कर मगर दिमाग नहीं माना | मैंने गम-सुम-सा होकर गाड़ी की गति तेज कर दी |
मेरा सारा दिन तनाव में बीता और मैं बड़ी मुश्किल से अपने दिल को समझा पाया था कि ऐसी औरतों पर विश्वास करना खतरे से खाली नहीं | मेरा दिल मेरे तर्कों से चुप तो हो गया था लेकिन शायद वह संतुष्ट नहीं हुआ था | दो दिन बाद जब मैंने समाचार-पत्र में खबर का शीर्षक - “ सामूहिक बलात्कार के बाद हत्या ” पढ़ा तो मेरा दिल उछलकर मेरे सामने आ खड़ा हुआ | मैंने जल्दी-जल्दी पूरी खबर पढ़ी | लड़की की लाश सड़क के पास पेड़ों के झुरमुट में से मिली थी और यह वही स्थान था जहाँ मुझे वह लड़की मिली थी | मेरी आँखों के सामने उस रोती-बिलखती बेबस लड़की की तस्वीर घूमने लगी | मेरा दिल मुझे झकझोरते हुए कह रहा था – “ क्यों ! मैंने तुझसे कहा था न कि वह लड़की मासूम है और अगर तूने उस शरीफ लड़की की मदद की होती, उस पर तरस खाया होता तो उसकी इज्जत भी बच गई होती और वह खुद भी | तूने उसकी मदद न करके गुनाह किया है | जिन दरिंदों ने उस बेचारी को नोच-नोचकर मार डाला उन से बड़ा गुनहगार तू है | असली गुनहगार तू है | ”
एक क्षण के लिए मुझे लगा “ हाँ, मैं गुनहगार हूँ ” | एक क्षण के लिए मेरा दिमाग मेरे दिल से सहमत हो गया लेकिन अगले ही क्षण वह फिर अपने तर्कों के साथ उपस्थित था | उसके पास कई उदाहरण थे | मैं सोच रहा था कि अगर वह शरीफ न होकर शराफ़त का ढोंग रचने वाली कोई आवारा लड़की होती तो क्या होता ? संभवत: मैं लुट गया होता | संभवत: अगले दिन के समाचार पत्र की सुर्खी होती – “ सुनसान जगह पर एक बदमाश ने एक मासूम लड़की से बलात्कार करने की कोशिश की | ” ऐसी दशा में पूरा समाज मेरे पीछे पड़ जाता ; मीडिया मसाला लगा-लगाकर इस खबर को सुनाता, काल्पनिक वीडियो बना-बनाकर दिखाता ; महिलाएं आन्दोलन करती हुई सडकों पर उतर आती | मैं तो सलाखों के पीछे होता ही, मेरे बीवी-बच्चों का जीना भी दूभर हो गया होता | मैं तो बस यह बात सोचकर उसकी मदद किये बिना उसे बीच रास्ते अकेला छोड़ आया था कि अपनी सुरक्षा अधिक जरूरी है | मैंने तो सिर्फ औरत के उस स्त्रीत्व से अपना बचाव किया था जिसे कुछ बुरी औरतों ने अपना हथियार बना रखा है | मैंने तो समाज और मीडिया के उस रूप से अपना बचाव किया था जो सिर्फ एक पहलू को ही देखता है और इस बचाव में अगर किसी शरीफ लड़की की इज्जत लुट गई , जिन्दगी चली गई तो इसमें मेरा क्या गुनाह है ?
मैं इस किस्से को महज इत्तेफाक कहकर भूलने की जितनी कोशिश कर रहा हूँ, मेरा दिल इसे उतना ही याद दिला रहा है ; मानवता, नैतिकता की दुहाई दे रहा है और बार-बार दिल और दिमाग में युद्ध छिड़ रहा है | मेरे भीतर एक द्वंद्व खड़ा हो गया है क्योंकि यदि मेरा दिल सही है तो गलत मेरा दिमाग भी नहीं | आदमियत के नाते, नैतिकता के नाते अगर दिल सही है तो मौजूदा हालातों को देखते हुए दिमाग भी सही है | मेरा दिल और मेरा दिमाग, दोनों सही हैं इसलिए एक अनुत्तरित सवाल मेरे सामने मुंह बाए खड़ा है – “ क्या मैं गुनहगार हूँ ? ”
* समाप्त *
दिलबागसिंह विर्क
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मंगलवार, अप्रैल 12, 2016
भेड़चाल
सम्मोहित हो जाना
नियति है भेड़ों की
कितने भी युग बदलें
ज्ञान का प्रसार हो चाहे जितना
भेड़ें भेड़ें ही रहती हैं
और भेड़िए भेड़िए
बदलते दौर के साथ
नहीं बदलती भेड़ें
मगर बदल जाते हैं भेड़िए
भेड़िए आजकल सिर्फ़ शिकार नहीं करते
पूरी भेड़ जाति पर कब्जा जमाने के लिए
वे पालते हैं कुछ भेड़ें
भेड़ियों की पालतु भेड़ें
चलती हैं भेड़ियों के इशारों पर
बहुत सी भेड़ें
बेशक पालतु नहीं भेड़ियों की
मगर वे भेड़ें तो हैं ही
उन्हें निभानी होती है
भेड़चाल की अपनी परम्परा ।
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दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, अप्रैल 06, 2016
परिवर्तन के लिए
आग उगलें शब्द
फड़कने लगें बाजू
कविता पढ़कर
ज़रूरी तो नहीं
अल्फ़ाज़ हर बार
प्रेरित करें लोगों को
बंदूक उठाने के लिए
कब ज़रूरी है यह
विरोध की भाषा का
बन्दूकों से ही बोला जाना
कहाँ ज़रूरी है
परिवर्तन के लिए
काफ़ी होता है
विचारों की एक लहर का उठाना
मन-मस्तिष्क में
हमें तो करनी है
विचारों की खेती
क्योंकि
बंदूकें तो
कभी-कभार लिखती हैं
विचार अक्सर लिखते हैं
परिवर्तन की कहानी |
दिलबागसिंह विर्क
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सोमवार, मार्च 21, 2016
धड़कनों पर तेरा नाम है
याद है, जाम है, शाम है
दर्द को आज आराम है ।
क्या मुहब्बत इसी को कहें
धड़कनों पर तेरा नाम है ।
दोस्ती कर रहा किसलिए
प्यार है या तुझे काम है ।
जिस्म तक रह गई सोच बस
आजकल इश्क़ बदनाम है ।
बात दिल की सुनो तो सही
गूंजता ' विर्क ' इल्हाम है ।
दिलबागसिंह विर्क
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इल्हाम - हृदय में आई ईश्वर की बात,
देववाणी, आकाशवाणी
मंगलवार, मार्च 15, 2016
भेड़िए की जीत
आज तेरे पास नहीं
भले ही गुजारे लायक साधन
मौसमों की मार भी पड़ती है तुझ पर
गले तक कर्ज में भी डूबा है तू
मगर तू वंशज है ऊँचे खानदान का
पीढ़ियों पहले
तुम्हारी जाति के लोगों ने
किया था शोषण हमारी जाति का
अब उसकी सजा भुगतनी होगी तुझे
ये कहकर निगल गया
सामाजिकता का भेड़िया
आर्थिकता के मेमने को
अतीत का बदला ले लिया गया
वर्तमान से
और नींव रख दी गई भविष्य की
मेमना कभी भेड़िया था
भेड़िया कभी मेमना था
मेमने और भेड़िए बदलते रहे हैं
हर दौर में
मगर भेड़िए अतीत में भी जीते थे
वर्तमान में भी जीत रहे हैं
भविष्य में भी जीतेंगे...
दिलबागसिंह विर्क
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भले ही गुजारे लायक साधन
मौसमों की मार भी पड़ती है तुझ पर
गले तक कर्ज में भी डूबा है तू
मगर तू वंशज है ऊँचे खानदान का
पीढ़ियों पहले
तुम्हारी जाति के लोगों ने
किया था शोषण हमारी जाति का
अब उसकी सजा भुगतनी होगी तुझे
ये कहकर निगल गया
सामाजिकता का भेड़िया
आर्थिकता के मेमने को
अतीत का बदला ले लिया गया
वर्तमान से
और नींव रख दी गई भविष्य की
मेमना कभी भेड़िया था
भेड़िया कभी मेमना था
मेमने और भेड़िए बदलते रहे हैं
हर दौर में
मगर भेड़िए अतीत में भी जीते थे
वर्तमान में भी जीत रहे हैं
भविष्य में भी जीतेंगे...
दिलबागसिंह विर्क
********
बुधवार, मार्च 09, 2016
मन और पत्ते
छोटा हो या बड़ा
मन डोल ही जाता है
लालच को देखकर
वैसे ही जैसे
डोल जाते हैं पत्ते
हवा चलने पर
पत्तों की तरह
बेशक दिखता नहीं
मन का डोलना
मगर झलकता है
हमारे कृत्यों में
मौजूद रहता है यह लालच
अनेक रूपों में
हर जगह
हर समय
हवा की तरह
कमोबेश मात्रा में
पत्तों का डोलना
हार नहीं होती पेड़ की
लेकिन मन का डोलना
हार होती है आदमी की
आखिर फर्क तो है
मन और पत्तों में
आदमी और पेड़ में |
दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, फ़रवरी 24, 2016
शब्द-बाण
कमान से छूटा तीर
बेध पाता है
एक ही छाती
जुबान से निकले शब्द
बेध सकते हैं
अनेक हृदय
तीर घायल करता है
बस एक बार
शब्द चुभते रहते हैं
उम्र भर
शब्दों की गूँज
सुनाई देती है
रह रहकर
बेशक
अर्थ का अनर्थ संभव है
सुनने वाले के द्वारा
मगर सतर्कता ज़रूरी है
शब्द-बाण छोड़ने से पहले
क्योंकि अनर्थ का धुआँ
उठेगा तभी
जब शब्दों की आग होगी ।
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दिलबागसिंह विर्क
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बुधवार, फ़रवरी 10, 2016
रिश्तों की फ़सल
बड़े नाज़ुक होते हैं
रिश्ते-नाते
जरूरी होता है
संभालना इनको
आंगन में उगे
छुई-मुई के पौधे की तरह
डालनी पडती है
विश्वास की खाद
पैदा करना होता है
समर्पण से भरा
अनुकूल वातावरण
बचाना होता है
शक के तुषारापात से
दूर रखना होता है
अहम् जन्य
बेमौसमी तत्वों को
रिश्तों की फ़सल
यूँ ही नहीं लहलहाती
तप करना पड़ता है
किसान की तरह |
******
दिलबागसिंह विर्क
******
बुधवार, फ़रवरी 03, 2016
पतंग के माध्यम से
बहुत विस्तृत है आसमान
उड़ सकती हैं सबकी पतंगें
साथ-साथ
पतंग सिर्फ़ उड़ानी नहीं होती
पतंग लूटनी भी होती है
मज़ा ही नहीं आता
केवल पतंग उड़ाने में
असली मज़ा तो है
दूसरों की पतंग लूटने में
वैसे बचती नहीं
किसी की भी पतंग
किसी की हम लूट लेते हैं
कोई हमारी लूट लेता है
दुःख तो होता है
अपनी पतंग लुटने का
मगर ये दुःख बौना है
उस ख़ुशी के सामने
जो मिलती है
दूसरों की पतंग लूटने पर
अपनी पतंग रहे न रहे
दूसरों की नहीं रहनी चाहिए
बड़ों की जीवन शैली
सीख लेते हैं बच्चे
पतंग के माध्यम से
बचपन में ही |
******
दिलबागसिंह विर्क
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